भोर होने आ चली, काली निशा का चर्म है.
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श्रेष्ठ ग़ज़ल है पुनः पढ़ कर पुनः आनंदित हुआ
माननीय जवाहर जी, सादर, भगवान न करे किसी को भीख मगनी पड़े या बंदूक टांगनी पड़े. और शायद कोई छह के ऐसा करता भी नहीं होगा, मजबूरियां करवाती होंगी. इसलिए लिखा है.
Rakesh jee, badhai! bahut hee sundar rachan!
aapne baagee bhee bana diya aur wedna bhee jaga dee abhee bheekh aur bandook baakee hai!
माननीय जवाहर जी, सादर धन्यवाद. चार पंक्तियाँ और पेश कर रहा हूँ:
वो कवी कैसे, जो हैं बागी नहीं,
जिस ह्रदय में वेदना जागी नहीं.
देश द्रोही इस क्षुधा को वो कहे,
जिसका कुर्ता रक्त से दागी नहीं.
भीख गर उस शख्श ने मागी नहीं,
भूख से बंदूक भी टांगी नहीं,
अब बताओ किस तरह जी पाए वो,
देश के धन में जो सहभागी नहीं.
माननीय सौरभ जी, सादर नमस्कार एवं आभार :)
राकेशजी, अब मुकम्मल हो चुकी इस ग़ज़ल के लिये फिर से ढेर सारी बधाइयाँ. वाह !!
Ji sadar abhar.
श्री वीनस जी ,सादर. जब मुझे ग़ज़ल की मूल परिभाषा ही ओ बी ओ पर मिली तो फिर ये आपका महानता है कि हमे सम्मान दे रहे हैं. गुरु लोगो के सनिध्य मे प्रयास जारी रहेगा. धन्यवाद.
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