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बचपन का क्या बयान करू, कुछ याद नहीं रहा दुनियादारी में, 

बस ये नहीं भूला की माँ जागती थी रात भर, मेरी हर बीमारी में. 


मै भूखा हूँ, मुझको सताया है ज़माने भर ने नादान समझ कर, 

ये बातें उसको कैसे पता चल जाती है, घर की चाहर-दीवारी में. 


उसे भी मालूम है कि, घर के बाजू में मलमल की कई दूकाने है,

बेटे की हौसला अफजाई करती है सूती धोती की खरीददारी में.  


सीना तान के करता हूँ हर तूफानी हवा-पानी का सामना मै. 

मेरी माँ की दुआ की छतरी साथ चलती है मेरी रखवारी में. 


मलाल है मुझे गुडिया ही खेलने को मिला, बहनो से छोटा था, 

राखी के सौ रुपये से, घरोदे की मुक्कमल छत आई मेरी बारी में. 


मै क्यूँ अपनी माँ को इस कदर चाहता हूँ, ये बात समझ गई! 

मेरी शरीक-ए-हयात भी जब पहुँच गयी माँ की बिरादरी में. 


उधार की कील पर, दो कमरो के ताबूत जैसा था ये मकान,

माँ की चिट्ठी आई, और घर रोशन हो गया दुआ की चिंगारी में. 


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Comment by राकेश त्रिपाठी 'बस्तीवी' on March 1, 2012 at 9:04am

आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी, सादर नमस्कार, आपकी बधाई सर आँखों पर. 

Comment by राकेश त्रिपाठी 'बस्तीवी' on March 1, 2012 at 9:02am

माननीया राजेश कुमारी जी, हौसला अफजाई के लिए बहुत बहुत शुक्रिया.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on March 1, 2012 at 12:53am

बहुत ही हृदय स्पर्शी प्रस्तुति है. हार्दिक बधाई स्वीकारें, राकेशजी.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on February 29, 2012 at 9:59pm

maa ke prati sundar bhaavon ko jiya hai aapne is kavita me...bahut khoob

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