दोस्ती, एक ऐसा शब्द इसे जितना परिभाषित करने का प्रयास करो उतना विस्तार पाता है। पर न तो इसमें उलझन हैं और न ही किसी प्रकार के विरोधाभास का डर रहता है। अगर आपकी मित्रता पक्की है तो उससे अच्छा कोई अन्य रिश्ता नहीं। सदियों की विचारधाराओं के सम्मिश्रण से तैयार निष्कर्ष से यह पता चलता है कि समाज के हर वर्ग में दोस्ती की जितनी भी मिसालें हैं सभी यही कहती हैं। मसलन कृष्ण-सुदामा की मित्रता, मित्रता का दायरा परिभाषित नहीं है, फिर भी मित्रता करते समय यह विचार अवश्य ही कर लेना चाहिए कि आपकी मित्रता सकारात्मक समकक्ष और सजातीय है। सजातीय से यहाँ तात्पर्य है - ऐसी मित्रता जो मानव से मानव के बीच हो , मानव से जानवर के बीच नहीं। सकारात्मक से तात्पर्य है कि जिससे आप मित्रता करना चाहते हैं वह भी आपसे मित्रता करने की इच्छा रखे। समकक्ष से तात्पर्य है कि वह मित्रता के योग्य हो।
श्रीकृष्ण और सुदामा की मित्रता की बराबरी करने की कोई सोच भी नहीं सकता। श्रीकृष्ण ने सुदामा से मित्रता निभा कर दोस्ती का अद्भूत आयाम स्थापित किया है। उन्होंने यही बताया कि मित्रता में अमीरी-गरीबी, ऊंच-नीच, भेद-भाव जैसी भावना की कोई जगह ही नहीं होती है। श्रीकृष्ण स्वयं परमात्मा है परंतु उन्होंने मित्रता के वश में होकर सुदामा के चरण भी धोए और उनका यथा योग्य स्वागत किया।सुदामा को पलंग पर बिठाकर कृष्ण उनके पैर दबाने लगे।
गुरुकुल के दिनों में दोनों जंगल में लकड़ी लेने गए। मूसलाधार वर्षा होने लगी। एक वृक्ष के नीचे आसरा लिया। सुदामा के पास कुछ चने थे, वे चबाने लगे। आवाज सुनकर कृष्ण ने कहा कि क्या खा रहे हैं तो सुदामा ने सोचा सच-सच कहूँगा तो चने कृष्ण को भी देने पड़ेंगे। इसलिए बोले- क्या खाउगा, ठंड के मारे मेरे दांत बज रहे हैं। अकेले खाने वाला दरिद्र हो जाता है। सुदामा ने कहा पर अपनी दरिद्रता के बारे में कुछ भी नहीं बताया। कृष्ण बोले- भाभी ने मेरे लिए कुछ तो भेजा होगा। सुदामा संकोच वश पोटली छिपा रहे थे। मन में हंसते हैं कि उस दिन चने छिपाए थे और आज तन्दुल छिपा रहा है। जो मुझे देता नहीं है मैं भी उसे कुछ नहीं देता। सो मुझे छीनना ही पड़ेगा। उन्होंने चावल की पोटली छीनी और सुदामा के कर्मों को क्षीण करने के लिए चावल के कुछ दानों को ग्रहण किया।
इस संदर्भ में मुझे याद आती है वह कथा जो मैने बचपन में सुनी थी। एक बाग का माली और बंदर गहरे मित्र थे। माली बाग की देखरेख करता और बंदर पेड़ पर ही रहता। बंदर के कुछ और साथी भी आसपास के बाग में रहते थे। एक बार उस शहर में राजसी जश्न मनाया जा रहा था। दिन भर काफी धूम मचने वाली थी। माली ने सोचा यदि आज कोई उसका यह बाग सींच दे तो वह भी राजसी जश्न में शामिल हो सकेगा। उसे अपने मित्र बंदर का ख्याल आया उसने तुरंत ही उसे बुलाया और कहा बंदर भाई मेरा एक काम करोगे । बंदर ने हाँ कर दी। माली ने कहा आज तुम मेरा यह बाग सींच देना। बंदर तैयार हो गया। माली निश्चिंत हो कर चला गया। बंदर तो बंदर था। उसने 2-4 पौधे सींचे फिर सोचा कहीं ऐसा न हो कि पानी कम पड़ जाए- उसे एक युक्ति सूझी। उसने सोचा क्यों न इन पौधों की जड़ देख लूं। जिसकी जितनी बड़ी जड़ होगी उतना ही पानी डालूंगा। यह सोचकर वह एक-एक पेड़ उखाड़ता गया और पानी डालता गया। जब माली लौटकर आया तो बाग का हाल देखकर सर पकड़ लिया।
दोस्ती और प्रेम पूरक हैं एक-दूसरे के
जीवन मित्रों के बिना अधूरा है। दोस्ती ही एक ऐसा रिश्ता है जो हम खुद अपनी सोच-समझ से जोड़ते हैं। दोस्त हम खुद चुनते हैं, जीवन के हर कदम पर हमें अलग-अलग लोग मिलते हैं, कुछ से अच्छी जान-पहचान भी हो जाती है परंतु बहुत कम ही ऐसे होते हैं जिन्हें हम दोस्त कह सकते हैं। जिनसे मिलकर हमें आत्मीय खुशी का एहसास होता है। किसी भी मुश्किल समय में हमें जिस व्यक्ति की मदद की सबसे ज्यादा जरूरत होती है वह दोस्त ही होते हैं। मुसीबत चाहे जैसी भी हो आप सहज ही उससे उबर सकते हैं, बशर्ते आपका मित्र आपका हाथ न छोड़े। आपका दोस्त सच्चा है तो निःसंदेह आप दुनिया कुछ खुशनसीबों में से एक हैं।
यह रिश्ता बहुत महत्वपूर्ण होता है। लोग यह भूल जाते हैं कि जिससे मित्रता कर रहे हैं, उसके गुण क्या है। मित्र धनवान हो लेकिन अहंकारी नहीं, शक्तिशाली हो लेकिन आक्रमणकारी नहीं, वैभवशाली हो लेकिन भोगप्रवृत्ति का न हो। ऐसे आदमी से दोस्ती करना निरर्थक ही नहीं अपने लिए अपमान का कारण भी बन सकता है। मित्रता हमेशा भावनात्मक समर्पण देख कर करें, तभी निभेगी। उद्देष्यपूर्ण मित्रता है तो उसमें भी उद्देष्यों का ध्यान रखना जरूरी है। राम को सुग्रीव व उसके साथियों से इतनी जानकारी मिल गई थी कि सीता का अपहरण हुआ। कोई विमान से सीता को दक्षिण दिशा में ले गया। विषय था सीताजी की खोज। सुग्रीव ने राम को आश्वस्त किया। राम के पास यह विकल्प था कि वे सीता की खोज जैसे महत्वपूर्ण कार्य के लिए या तो सुग्रीव से मित्रता करें या बाली से। बाली उस समय बलशाली थे और राजा थे। राम ने मैत्री सुग्रीव से की क्योंकि बाली अहंकारी थे और अनुचित, अन्याय के प्रति विरोध नहीं करते थे। एक और महत्वपूर्ण पक्ष यह था कि राम और सुग्रीव की मैत्री हनुमानजी ने कराई। दोनों ने हृदय से प्रीति का कुछ भी अंतर नहीं रखा। यह राम की विशिष्टता थी कि उन्होंने सुग्रीव पर विश्वास किया। जिस पर विश्वास किया जाए, उसे पूरा अधिकार भी दिया जाए। राम ने सुग्रीव पर पूरा विश्वास कर अधिकार दिया कि वे सीता की खोज करें। इसी विश्वास की प्रेरणा का आधार था कि सुग्रीव ने अपनी पूरी ताकत सीता की खोज में लगा दी।
समय के साथ-साथ दोस्ती के मायने भी बदले हैं। आज अधिकतर दोस्ती अपना स्वार्थ, मतलब और स्टेटस देखकर की जाती है। बीते समय में दोस्ती का संबंध सिर्फ मन से होता था। ऐसे कई उदाहरण है जहां दोस्ती की महानता दिखाई देती है। राम और कृष्ण की मित्रता पूजनीय है, जिन्होंने अपने मित्रों के लिए सारी सीमाएं तोड़कर मित्रधर्म का पालन किया। राम ने सुग्रीव की मित्रता के लिए बाली वध किया था जिसे आज भी कुछ लोग राम के इस कार्य को गलत ही मानते हैं। परंतु राम ने मित्रता के लिए बाली वध कर सुग्रीव के कष्टों को दूर किया, राम के जीवन में उनके कई मित्र हुए और वे सभी मित्रों पर अपनी कृपा बरसाते रहे।
आधुनिकता की चकाचैंध ने आज दोस्ती को माध्यम बना दिया है। सामान्यतः आज के लोगों की मानसिकता यही होती है कि यदि कोई अपने काम आ सकता है तो उससे दोस्ती कर ली जाए और काम निकल जाने पर उस मित्र को भुलाने में देर नहीं करते। एक ओर मित्रता की महानता बताता हमारा इतिहास है वहीं दूसरी ओर आज की मित्रता। सामंजस्य, समर्पण, समझ और सहनशीलता एक अच्छे दोस्त की पहचान होती है। दोस्ती में कोई अमीरी-गरीबी या ऊँच-नीच नहीं होती। इसमें केवल भावनाएँ होती हैं, जो दो अनजान लोगों को जोड़ती हैं।
मित्रता को माध्यम न माना जाए। दोस्ती भावनाओं का वह अटूट रिश्ता है जिसमें शरीर अलग-अलग होते हैं पर दोनों की आत्मा एक होती है। अतः विपत्ति ही वह समय है जब हम अपने धीरज, धर्म, मित्र और पत्नी की परीक्षा करते हैं। सुख में तो सभी साथ देते हैं। जो दुख में साथ दे वही हमारा सच्चा हितैशी है। कलयुग में अल्प दुख भीमकाय दिखाई देता है और दुख के कारण धर्म और धीरज का साथ छूट जाता है। यहीं से शुरू होता है और भी ज्यादा बुरा समय। ऐसे में दुख में फँसे व्यक्ति के मित्र और पत्नी साथ दे तभी वह बच सकता है। परंतु ऐसा होता बहुत ही कम है। अतः यह समय ही परीक्षा का समय होता है। उस दुखी व्यक्ति के धर्म और धीरज की परीक्षा और परीक्षा उसके मित्र और पत्नी की सहनशीलता की।
महाभारत काल में यदि मित्रता का प्रसंग हो और दुर्योधन और कर्ण की मित्रता की बात न की जाए ऐसा कभी नहीं हो सकता। कर्ण-दुर्योधन की मित्रता का परिचय इस घटना से मिलता है जब कृष्ण संधि दूत बनकर हस्तिनापुर गए और लौटते समय उन्होंने कर्ण को अपने रथ पर बैठाकर बताया कि वे सूतपुत्र नहीं बल्कि कुंती पुत्र हैं। कहा कि यदि तुम पांडवों की ओर से युद्ध करोगे तो राज्य तुम्हें ही मिलेगा। कर्ण ने इस बात पर जो कहा वह उनकी दोस्ती की सच्ची मिसाल है। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि पांडवों के पक्ष में कृष्ण आप हंै तो विजय तो पांडवों की निश्चय है। परंतु दुर्योधन ने मुझको आज तक बहुत मान-सम्मान से अपने राज्य में रखा है तथा मेरे भरोसे ही वह युद्ध में खड़ा है। ऐसी संकट की स्थिति में यदि मैं उसे छोड़ता हूँ तो यह अन्याय तो होगा ही मित्र धर्म के विरुद्ध भी होगा।
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