आज भी बदक़िस्मती का वो ज़माना याद है ।
एक ज़वा बेटे का दरया डूब जाना याद है ।
क्या सुनाए कोई नग़मा क्या पढ़ें अब हम ग़ज़ल,
ग़म में डूबा ज़िन्दगी का बस फसाना याद है ।
जश्ने-होली खो गई दीवाली फीक़ी पड़ गई,
अब फ़क़त हर साल इनका आना-जाना याद है ।
सोचते थे अब तलक़ वो छुप गया होगा कहीं,
लौट कर आया नहीं उसका बहाना याद है ।
कर रहे थे बाग़बानी हम बड़े ही प्यार से,
आज भी उस ख़ुशनुमा गुल को गॅवाना याद है ।
कैसे भूलें खिरमने-दिल पर गिरी थीं बिज़लियाँ,
तिनके-तिनके से बना वो आशियाना याद है ।
जिस घ्ड़ी मैं ले चला बंटे की मय्यत दोश पर,
आँखें थीं नमदीदा फिर भी मुस्कराना याद है ।
क्या सुनाए नग़म-ए-क़ैफोतरब ‘‘अफ़सोस’’ हम,
ग़म में डूबा ज़िन्दगी का बस तराना याद है ।
Comment
आदरणीय अफ़सोससाहब, एक विभूति के अफ़सोस बन जाने की प्रक्रिया को तिल-तिल समेटना आँखों की निर्निमेष कोर को पनिया गया. घोष-स्वर में सुनना और फिर छूना... आह ! साहब.. .!! कुछ बीत चुके पल यों होते हैं जिनका वज़ूद पत्थर के पटल पर बनी लहरों की तरह अबूझ किन्तु कालजयी-सा होता है. हम सभी बस तमाशबीन हैं साहब, पत्थरों पर बनी उन दिल के नाज़ुक हिस्से को काढ़ लेने वाली लहर-लकीरों को जानते-बूझते हुए भी मूक बने उनमें प्रकृति की खूबसूरती निहारते हैं.
आपकी ऊर्जा हम सभी को उत्प्रेरित करे, अफ़सोस साहब.
संप्रेषण के साधन आपके समय से आज भले बदल गये हैं लेकिन विधा तो वही है. बस काग़ज़-कलम की जगह हाथ में की-बोर्ड आगया है भाव-शब्द उकेरने के क्रम में उंगलियों को थिरकाने को... !! आपसे बहुत कुछ सुनना है.
//आज भी बदक़िस्मती का वो ज़माना याद है ।
एक ज़वा बेटे का दरया डूब जाना याद है //
आह ! मतला दिल को चिर देने वाला है, कुछ बातें तो मरने के बाद ही भूलती हैं |
//क्या सुनाए कोई नग़मा क्या पढ़ें अब हम ग़ज़ल,
ग़म में डूबा ज़िन्दगी का बस फसाना याद है //
कभी कभी उन्ही फसानों से जीने का मकसद मिल जाता है, बढ़िया शे'र गाजीपुरी जी, सीधे ह्रदय को बेध रहा है |
//जश्ने-होली खो गई दीवाली फीक़ी पड़ गई,
अब फ़क़त हर साल इनका आना-जाना याद है//
वाजिब ही है, बगैर अपनों के क्या होली क्या दिवाली, सब दिन एक जैसा ही है, बल्कि आम दिनों से ज्यादा वो त्यौहार के दिन सलते हैं |
//सोचते थे अब तलक़ वो छुप गया होगा कहीं,
लौट कर आया नहीं उसका बहाना याद है //
बहुत दर्द है इस शेर में साहब |
//कर रहे थे बाग़बानी हम बड़े ही प्यार से,
आज भी उस ख़ुशनुमा गुल को गॅवाना याद है//
पुनः दर्द के ओस से भीगा एक शेर |
//कैसे भूलें खिरमने-दिल पर गिरी थीं बिज़लियाँ,
तिनके-तिनके से बना वो आशियाना याद है//
अच्छा शेर, दर्द को महसूस किया जा सकता है |
//जिस घ्ड़ी मैं ले चला बंटे की मय्यत दोश पर,
आँखें थीं नमदीदा फिर भी मुस्कराना याद है//
वोह, हे प्रभु !
//क्या सुनाए नग़म-ए-क़ैफोतरब ‘‘अफ़सोस’’ हम,
ग़म में डूबा ज़िन्दगी का बस तराना याद है//
इन तरानों के बल पर ही जीवन की नैया पार करनी है, दाद भी नहीं दे सकता इस ग़ज़ल पर,
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