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इतना बंदी मत करो मुझे अहसानों से....

इतना बंदी  मत करो मुझे अहसानों से,

कि आखिर को प्रतिदान नहीं मैं दे पाऊँ.

 

विस्मृत अस्तित्व होगया जब मुझसे मेरा,

अहसान तेरे सदियों  के कैसे  याद रहें.

जलने दो जो जलती मुस्कानों की होली,

इतने आंसू मत गिरो, नहीं मैं चुन पाऊँ.

 

किस किस उपवन के अंचल को दोगी वसंत, 

हर उपवन में पतझड़ का शाश्वत शासन है.

आकर्षित मुझको करो न दीपक से क्योंकि

शायद  प्रकाश के  बदले  निशा न  दे पाऊँ.

 

इस क्षणिक मिलन से अभिप्रेत है चिर वियोग,

इस चिर  अभाव में  चिर  तृप्ति का साधन है.

रहने  दो  उर में  आस  अधूरी  मिलने  की,

अमरत्व मिलन के बाद न स्वीकृत कर पाऊँ.

 

इतना  बंदी मत करो  मुझे अहसानों से,

कि आखिर को प्रतिदान नहीं मैं दे पाऊँ.

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Comment by Kailash C Sharma on September 6, 2011 at 1:51pm

आभार अरुण जी....

Comment by Abhinav Arun on September 5, 2011 at 8:47pm
ह्रदय के मधुर भाव बेहतरीन तरीके से इस रचना में प्रवाहित है कैलाश जी बधाई इस कविता हेतु !!
Comment by Kailash C Sharma on September 5, 2011 at 8:19pm

गणेश जी और सौरभ जी, रचना पसन्द करने और प्रोत्साहन के लिए आभार। 


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on September 4, 2011 at 5:11pm

इस क्षणिक मिलन से अभिप्रेत है चिर वियोग,

इस चिर  अभाव में  चिर  तृप्ति का साधन है.

रहने  दो  उर में  आस  अधूरी  मिलने  की,

अमरत्व मिलन के बाद न स्वीकृत कर पाऊँ.

 

वाह वाह, बहुत ही खुबसूरत रचना, कैलाश जी बधाई स्वीकार करे इस सारगर्भित अभिव्यक्ति पर |


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on September 4, 2011 at 10:34am

//इस क्षणिक मिलन से अभिप्रेत है चिर वियोग,

इस चिर अभाव में चिर तृप्ति का साधन है.

रहने दो उर में आस अधूरी मिलने की,

अमरत्व मिलन के बाद न स्वीकृत कर पाऊँ.//

पंक्तियाँ सहज ही आकर्षित करती हैं.

इस भाव-प्रवण रचना पर बधाई.

 

Comment by Kailash C Sharma on September 3, 2011 at 7:50pm

शुक्रिया अरुण जी..

Comment by Abhinav Arun on September 3, 2011 at 3:08pm
ह्रदय की गहराई से निकली काव्य पंक्तियाँ अपना गहरा असर छोडती हैं | इस भाव प्रधान रचना के लिए हार्दिक बधाई कैलाश जी !!
Comment by Kailash C Sharma on September 3, 2011 at 3:04pm

शुक्रिया आशीष जी..

Comment by आशीष यादव on September 3, 2011 at 1:29pm

रहने  दो  उर में  आस  अधूरी  मिलने  की,

अमरत्व मिलन के बाद न स्वीकृत कर पाऊँ.

सुन्दर रचना के लिए बधाई,

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