एक गीत-
अमराई कर दो...
संजीव 'सलिल'
*
कागा की बोली सुनने को
तुम कान लगाकर मत बैठो.
कोयल की बोली में कूको,
इस घर को अमराई कर दो...
*
तुमसे मकान घर लगता है,
तुम बिन न कहीं कुछ फबता है..
राखी, होली या दीवाली
हर पर्व तुम्हीं से सजता है..
वंदना आरती स्तुति तुम
अल्पना चौक बंदनवारा.
सब त्रुटियों-कमियों की पल में
मुस्काकर भरपाई कर दो...
*
तुम शक्ति, बुद्धि, श्री समता हो.
तुम दृढ़ विनम्र शुचि ममता हो..
रह भेदभाव से दूर सदा-
निस्वार्थ भावमय समता हो..
वातायन, आँगन, मर्यादा
पूजा, रसोई, तुलसी चौरा.
तुम साँस-साँस को दोहा कर
आसों को चौपाई कर दो...
*
जल उथला सदा मचलता है.
मृदु मन ही शीघ्र पिघलता है..
दृढ़ चोटें सहता चुप रहता-
गिरि-नभ ना कभी उछलता है..
शैशव, बचपन, कैशौर्य, तरुण
तुम अठखेली, तुम अंगड़ाई-
जीवन के हर अभाव की तुम
पल भर में भरपाई कर दो..
*****
Comment
जल उथला सदा मचलता है.
मृदु मन ही शीघ्र पिघलता है..
दृढ़ चोटें सहता चुप रहता-
गिरि-नभ ना कभी उछलता है..
शैशव, बचपन, कैशौर्य, तरुण
तुम अठखेली, तुम अंगड़ाई-
जीवन के हर अभाव की तुम
पल भर में भरपाई कर दो..
bahut khubsurat sir ji
आहा, बहुत ही सरस गीत बन पड़ा है, खुबसूरत शैली मे कही गई खुबसूरत बात, बहुत बहुत आभार आचार्य जी |
sabhee ka abhar shat-shat.
ये सब कार्य एक महिला ही कर सकती हे ,एक बेटी ,एक बहिन ,एक पत्नी सब जीवन की भरपाईही नहीं करते ,जीवन को अर्थ डे देते हें ,जीवन को खुशियों से भर देते हें |इन के बिना आँगन ,घर सब सूने लगते हें |बहुत ही सुन्दर व मार्मिक रचना |बधाई
गीत की पंक्तियों के प्रत्येक शब्द अस्वर को अनुप्राणित कर देने का की ताकत रखते हैं.
//जल उथला सदा मचलता है.
मृदु मन ही शीघ्र पिघलता है..
दृढ़ चोटें सहता चुप रहता-
गिरि-नभ ना कभी उछलता है..
शैशव, बचपन, कैशौर्य, तरुण
तुम अठखेली, तुम अंगड़ाई-
जीवन के हर अभाव की तुम
पल भर में भरपाई कर दो..//
आपकी विशिष्ट शैली की रचना को सादर प्रणाम.
तुम शक्ति, बुद्धि, श्री समता हो.
तुम दृढ़ विनम्र शुचि ममता हो..
रह भेदभाव से दूर सदा-
निस्वार्थ भावमय समता हो..
वातायन, आँगन, मर्यादा
पूजा, रसोई, तुलसी चौरा.
तुम साँस-साँस को दोहा कर
आसों को चौपाई कर दो...
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