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ग़ज़ल 

१२२२ १२२२ १२२२ १२२२ 

उजाला  इसलिए  कमरे  में  पहले सा नहीं रहता 

हमारे  साथ  अब  वो चाँद   सा  चहरा नहीं रहता 

 

ग़िलाज़त  ही ग़िलाज़त  है सियासत तेरी बस्ती में 

यहाँ  आकर कोई भी  शख़्स पाकीज़ा नहीं रहता 

जूनूँ के दश्त में जिस दिन से दाख़िल हो गया हूँ मैं 

मेरी    दीवानगी    पे     दोस्तो   पहरा नहीं रहता 

उसी  को मंज़िल-ए-मक़सूद  मिलती  है ज़माने में 

जो  सर  पर  हाथ रख कर दोस्तो बैठा नहीं रहता

बुराई   पीठ   पीछे   जो  किया करते हैं लोगों की 

मैं   ऐसे   दोस्तों   के   साथ   दानिस्ता नहीं रहता 

ग़रीबों   में  ख़ुशी  तक़सीम  जो करता है वो इंसाँ

ख़ुदा  के फ़ज़्ल से दुनिया में अफ़सुर्दा नहीं रहता

हमारी  आपकी  तो बात ही क्या है 'समर' साहिब 

ख़ुदा  से   हाल  चींंटी  का भी पोशीदा नहीं रहता

'समर कबीर'

मौलिक व् अप्रकाशित 

Views: 761

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Comment by Samar kabeer on March 10, 2023 at 4:38pm

जनाब निलेश जी बहुत शुक्रिय: आपका ।

Comment by Samar kabeer on March 10, 2023 at 4:38pm

मुहतरमा रचना भाटिया जी बहुत शुक्रिय: आपका ।

Comment by Nilesh Shevgaonkar on March 10, 2023 at 2:05pm

आ. समर सर.

बहुत ख़ूब ग़ज़ल हुई है. बधाई स्वीकार करें.

जो  सर  पर  हाथ रख कर दोस्तो बैठा नहीं रहता.. यहाँ भाव हाथ पर हाथ धर कर बैठने का का है ...अमूमन सर पकड़ कर बैठना मुहावरे में आता है. देखिएगा ..
सादर 

Comment by Rachna Bhatia on March 9, 2023 at 1:03pm

आदरणीय समर कबीर सर् सादर नमस्कार। वाह वाह बेहतरीन ग़ज़ल हुई।शे'र दर शे'र दाद क़ुबूल करें।

Comment by Samar kabeer on January 17, 2023 at 6:47pm

बहुत शुक्रिय: भाई रामबली गुप्ता जी ।

मंच पर आपका पुनः स्वागत है ।

Comment by रामबली गुप्ता on January 17, 2023 at 1:10am

वाह वाह भाई साहब क्या कहने एक एक शेर लाज़वाब हुआ है। दिली मुबारकबाद पेश है।

Comment by Samar kabeer on January 16, 2023 at 5:40pm

बहुत शुक्रिय: जनाब तपन दुबे जी ।

Comment by Tapan Dubey on January 16, 2023 at 4:35pm

समर सर बड़ी अच्छी गजल हुईं है। बड़ा अच्छा लगा पड़ कर। बहुत बहुत बधाई।

Comment by Samar kabeer on January 11, 2023 at 7:00pm

बहुत शुक्रिय: जनाब सुशील सरना जी ।

Comment by Samar kabeer on January 11, 2023 at 6:59pm

बहुत शुक्रिय: मुहतरमा रचना भाटिया जी ।

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