फिर कौवा पहचान लिया गया ', वृद्ध काक अपने साथियों से बोला।
' उस मूर्ख काक की दुर्दशा - कथा शुरू कैसे हुई?' काक मंडली ने सवाल उछाला।
' वही रंग का गुमान उसको ले डूबा।कोयल अपने सुमधुर सुर के चलते पूजी जाती।लोग उसे सुनने का जतन करते।यह देख वह ठिंगना कौवा कोयल बनने चला।रंग कोयल जैसा था ही।बस मौका देखकर कोयलों के समूह में शामिल हो गया। उनके साथ लगा रहता। उसे गुमान हो गया कि अब वह भी कोयल हो गया। वह अन्य कौवों को टेढ़ी नजर से देखता।'
'फिर क्या हुआ दद्दा?' बाल कौवे जिज्ञासु भाव से बोले।
'जब बसंत ऋतु अपनी जवानी पर आई,कोयलों की मंडली ने मधुर तान छेड़ी।कौवा मस्त हुआ।कंठ फूटा,अनायास ही।पहचान लिया गया।और फिर कोयलों ने उसे अपने समूह से निकाल दिया।अब कौवे भी उसे तिरस्कृत करते,चोंच मारते कि इसने तो हमें हेय समझ रखा था।'
' अच्छा।चोंच मारो चोंच वाली बात?' कौवे बोले।
' हां हां।वही कौवों की चोंचों से बिंधा वह कौवा अब कांव कांव करने के बदले रिरियाता फिर रहा है, कि मारे गए इन कोयलों के चक्कर में।' वृद्ध काक बोला।
' ओहो कक्का!मारे गए गुलफाम समझो।' बाल काक मंडली ने फिकरा कसा।
" मौलिक व अप्रकाशित"
@मनन
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