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अपने ही पापों से मन घबराता है
सीने में इक अपराधों का खाता है
लाचारी से कुछ भारी है मजबूरी
आँखों में ताकत है देख न पाता है
उसकी मजबूरी समझूँ या अपना दुख
गुलशन से सहरा में कोई आता है?
लाख कोशिशें कर के माना है हमनें
जो होना है आखिर वो हो जाता है
दिल मे कोई भीड़ सलामत है लेकिन
तेरा चेहरा साफ नहीं दिख पाता है
क्या जाने अफसाना है या सच कोई
आखिर में जो सच की जीत बताता है
ढलता है जब सूरज अपनी भी छत पर
तब जग का अंधियार समझ में आता है
मौलिक और अप्रकाशित
Comment
ये सब कॉपी पेस्ट करने की जल्दबाज़ी का।नतीज़ा है आदरणीय
समर कबीर साहब
आपका नाम मैं कैसे भूल सकता हूँ
आपसे तो मैंने बहुत कुछ सीखा है
सादर प्रणाम स्वीकार करें
आभार
//आदरणीय समीर साहब
हार्दिक आभार//
मेरा नाम भी भूल गए ?
आदरणीय समीर साहब
हार्दिक आभार
मिसरा चेक करता हूँ
सुझाव के लिए बहुत बहुत शुक्रिया
सादर
आदरणीय सालिक जी
ग़ज़ल पर उत्साह वर्धक प्रतिक्रिया का हार्दिक आभार
सादर
आदरणीय अमीर साहब
हार्दिक आभार
मिसरा चेक करता हूँ
सुझाव के लिए बहुत बहुत शुक्रिया
प्रिय भाई मनोज एहसास जी
सादर नमस्कार
शानदार ग़ज़ल के लिए बधाइयाँ स्वीकार करें.
दिल में कोई भीड़ सलामत है लेकिन
तेरा चेहरा साफ नहीं दिख पाता है...... वा
जनाब मनोज अहसास जी आदाब, ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है,बधाई स्वीकार करें ।
'लाख कोशिशें कर के माना है हमनें
ये मिसरा बह्र में नहीं,देखियेगा।
जनाब, मनोज कुमार 'अह्सास' जी, आदाब। ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है, बधाई स्वीकार करें।
मेरा इस बह्र से साबक़ा नहीं पड़ा है। बहरहाल इस बह्र में "लाख कोशिशें कर के माना है हमनें" मिसरा बह्र में नहीं है। सादर।
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