(1222 1222 1222 1222 )
ज़रा सोचें अगर इंसान सब लोहा-बदन होते
यक़ीनन फिर क़ज़ा आने पे पत्थर के क़फ़न होते
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निज़ामत ग़ौर करती गर ग़रीबों की तरक़्क़ी पर
वतन में अब तलक भी लोग क्या नंगे बदन होते ?
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फ़िरंगी की अगर हम नक़्ल से परहेज़ कर लेते
नई पीढ़ी के फ़रसूदा भला क्या पैरहन होते ?
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जूँ लुटती आज है लुटती इसी मानन्द गर क़ुदरत
तो क्या दरिया शजर बचते कहीं पर कोई बन होते ?
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अगर इन्सां न मज़हब और फिरकों में बँटा होता
बरहमन मोमिनों को क्या लड़ाने के जतन होते ?
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बशर के बूँद अमरित की नसीबों में अगर होती
जहाँ से ख़त्म फिर हर हाल में सब गोरकन होते
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ज़रा से ज़र की ख़ातिर छोड़ डाला है वतन जिसने
वही अब चाहता है पास में फिर हमवतन होते
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पराये दर्द सहना दूर करना शग्ल है जिसका
ख़ुदा क्यों देखता उसको बुराई में मगन होते ?
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'तुरंत' इक है तमन्ना काश भारत में कभी देखें
अजानें मंदिरों में और मस्जिद में भजन होते
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गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' बीकानेरी
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शब्दार्थ -- फ़रसूदा= फटे हुए ,पैरहन=वस्त्र ,बन =वन/जंगल ,
बरहमन=ब्राम्हण ,गोरकन=एक जंतु जो कब्र खोदकर
मुर्दे खाता है, शग्ल=रुचि
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
जी,मैं जानता हूँ,लेकिन मैं जो भी जानकारी आपको या मंच को देता हूँ वो 100% सहीह होती है,जो लोग भाषा के जानकार नहीं वो कुछ भी इस्तेमाल कर सकते हैं,लेकिन 'शायर' शब्द 'पत्थर'ख़ंजर' के क़वाफ़ी के साथ किसी तरह नहीं चल सकता,लेकिन इसे भी चलाने वाले चला ही लेते हैं,आप जब 'जान एलिया' जैसे भाषा के जानकार शाइर को सुनेंगे तो उन्हें "मानन्द" ही इस्तेमाल करते पाएँगे ।
आदरणीय Samar kabeer साहेब , आपकी हौसला आफ़जाई के लिए बहुत बहुत आभार एवं सादर नमन | आपके निःस्वार्थ मार्गदर्शन के लिए आपका ऋणी हूँ | आवश्यक संशोधन कर दिए हैं | हालाँकि मानन्द शब्द उर्दू में प्रचलित नहीं है , हर शाइर के कलाम में मानिंद ही देखा है अब तक , इसमें कुछ असमंजस अवश्य है | ऐसा देखा गया है , उर्दू में स्वरों को एक दुसरे के स्थान पर परिवर्तित कर शब्द बना लिए गए हैं और उनके दोनों रूप मान्यता प्राप्त कर चुके हैं | "य " की ध्वनि भी "स्वर " की ध्वनि मान ली गई है | जैसे मोहब्बत /महब्बत , शाइर /शायर , जाइज /जायज , आयेगा /आएगा , अयादत /इयादत / एहसास /अहसास , इख़्तियार /अख़्तियार जैसे कई शब्द प्रयोग में होते रहते हैं और उर्दू से नावाक़िफ़ लोगों के लिए परेशानी का सबब बने हुए हैं |
जनाब गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत' जी आदाब, ग़ज़ल का अच्छा प्रयास हुआ है, बधाई स्वीकार करें ।
'फ़िरंगी की नक़ल गर हिन्द की नस्लें नहीं करती'
इस मिसरे में 'नक़ल' शब्द ग़लत है,सहीह शब्द है "नक़्ल"21 देखियेगा ।
'जूँ लुटती आज है लुटती इसी मानिंद गर क़ुदरत'
इस मिसरे में 'मानिंद' शब्द ग़लत है,सहीह शब्द है "मानन्द",देखियेगा ।
'ज़रा सी ज़र की ख़ातिर छोड़ डाला है वतन जिसने'
इस मिसरे में 'ज़रा सी' की जगह "ज़रा से" कर लें ।
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