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राम-रावण कथा (पूर्व-पीठिका) 38

कल से आगे .............

‘‘आप यह कृपाण सदैव अपने साथ ही रखते हैं, कभी अलग नहीं करते ?’’ वेदवती ने ठिठोली करते हुये रावण से प्रश्न किया।
‘‘यह कोई साधारण कृपाण नहीं है। यह चन्द्रहास है, स्वयं भगवान शिव ने मुझे प्रदान की है। इसके साथ ठिठोली रावण को सह्य नहीं है।’’
‘‘ऐसा क्या ? तो इसे कुटिया में पूजा में सजा कर क्यों नहीं रख देते ?’’
‘‘चन्द्रहास रावण का आभूषण है। रावण आर्यों की तरह मूर्ति पूजक नहीं है। उसके शिव मूर्तियों में नहीं, उसके हृदय में निवास करते हैं और उनका प्रसाद सदैव उसके साथ रहता है।’’
रावण और वेदवती के मध्य का आरंभिक संकोच समाप्त हो गया था। दोनों अब खुल कर बात करते थे, हँसी-मजाक करते थे। इस निर्जन वन-प्रांत में वे दोनों ही एक दूसरे के सखा थे, सहचर थे। दोनों के कठोर साधना-व्रत शिथिल हो गये थे। एक दूसरे के साथ समय बिताना दोनों को अच्छा लगने लगा था। आज भी ऐसे ही दोनों आपस में ठिठोली करते हुये वन में विचर रहे थे।
‘‘अच्छा उस दिन आप कह रहे थे कि इसके एक ही वार से आप पूरा वृक्ष गिरा सकते हैं ?’’
‘‘ठीक ही कह रहा था।’’
‘‘तो गिरा कर दिखाइये !’’ वेदवती ने चुनौती के स्वर में कहा।
‘‘बताइये कौन सा ?’’
‘‘वो ... वो वाला, जो सबसे ऊँचा दिखाई दे रहा है।’’ वेदवती ने एक खूब ऊँचे साल के वृक्ष की ओर संकेत करते हुये कहा।
रावण चंद्रहास को थाम कर दृढ़ कदमों से धीरे-धीरे उस वृ़क्ष की ओर बढ़ा। उसने ध्यान से वृक्ष को देखा। चन्द्रहास यद्यपि बहुत लम्बी थी, एक सामान्य स्त्री की ऊँचाई से कुछ ही कम, फिर भी वृक्ष का घेरा उससे पर्याप्त बड़ा था। रावण ने दृष्टि से ही उसे नापा फिर झुकाव की विपरीत दिशा में जाकर खड़ा हो गया।
‘‘दूर हट जाओ या आकर इधर मेरे पीछे खड़ी हो जाओ।’’
‘‘मैं पर्याप्त दूर हूँ।’’ वेदवती को विश्वास नहीं था कि इतने विशाल घेरे वाला वृक्ष कृपाण के एक वार से गिराया जा सकता था। फिर भी वह थोड़ा और पीछे हट गई।
रावण ने चंद्रहास उठाई और जोर से हुंकारी भरते हुये दायें से बायें भरपूर वार कर दिया। चंद्रहास तने के आर-पार हो गयी थी किंतु फिर भी तने का वृक्ष के झुकाव की तरफ का लगभग एक हाथ हिस्सा तो चंद्रहास के वार की परिधि से बाहर रहा था हिलगा रह गया था।
‘‘नहीं गिरा !’’ वेदवती ने विजेता के से स्वर में ताली बजायी।
रावण को वेदवती की आवाज ही सुनाई दी। उसके और वेदवती के बीच में वह विशाल वृक्ष था। उसने चरमराते हुये वृक्ष में पीछे से एक भरपूर धक्का दिया तो वृक्ष झटके से नीचे झुकता चला गया। चड़-चड़ की आवाज सुन कर वेदवती चैंकी और झुकते हुये वृक्ष को देख कर पीछे भागी किंतु वृक्ष की ऊँचाई उसके अनुमान से काफी अधिक थी। खड़ा हुआ वृक्ष उतना लम्बा समझ नहीं आ रहा था जितना कि वास्तव में वह था। वेदवती पूरी शक्ति से भागने के बाद भी किसी दैत्याकार गरुण के डैनों सी फैली उसकी लम्बी-लम्बी डालियों की चपेट में आ ही गयी।
एक जोर की चीख सुनकर रावण उसकी ओर भागा। वेदवती वृक्ष की डालियों-पत्तों के नीचे दबी था। रावण को लगा जैसे उसकी साँस रुकी जा रही हो। पास जाकर जब उसने देखा कि गनीमत हुई थी, वेदवती किसी मोटी डाल की चपेट में नहीं आई थी। फिर भी पत्तों और पतली-पतली टहनियों ने उसके पूरे शरीर पर चाबुक की तरह वार किया था। पर पैरों में अधिक चोट होनी चाहिये। एक अपेक्षाकृत मोटी टहनी दोनों पैरों पर से होते हुये उसे दाबे थी। रावण ने एक हाथ से डालियों को उचका दिया और उसे बाहर निकलने का इशारा किया। वेदवती ने कमर से उचक कर हथेलियाँ जमीन पर टिकाईं और जोर लगाकर निकलने का प्रयास किया पर इस प्रयास में ही उसकी चीख निकल गई। रावण ने अपने दूसरे हाथ से झुककर उसकी भुजा पकड़ी और पकड़ कर बाहर खींच लिया। वेदवती की चीखों की उसने परवाह नहीं की।
अब वेदवती पेड़ से बाहर थी।
‘‘तुम्हें मरने की विशेष जल्दी है क्या ?’’ दोनों में से किसी ने ध्यान नहीं दिया कि आज पहली बार रावण के मुख से उसके लिये अनायास तुम निकल गया है।
वेदवती ने आँसुओं से भीगा मुख उठाकर कातर दृष्टि से उसे निहारा। रावण का सारा गुस्सा उसके आँसुओं के साथ बह गया। इस बार वह कोमलता से बोला -
‘‘कभी शेर के आगे कूद जाती हो, कभी गिरते पेड़ के नीचे लेट जाती हो आखिर क्या है यह ? मैंने कहा था तुमसे कि दूर हट जाओ।’’ उसके स्वर में झुंझलाहट अभी थी -‘‘देखो फिर से कितनी चोट मार ली।’’
‘‘मैं तो दूर ही थी पर पेड़ ही गिरते-गिरते दूना लम्बा हो गया।’’
उसका मासूम सा जवाब सुनकर रावण के मुख पर अनायास स्मित खेल गई। उसने हाथ बढ़ा कर उसकी हथेली थाम ली और खींचते हुये बोला -
‘‘उठने का प्रयास करो।’’
वेदवती की फिर चीख निकल गई। वह रावण के जोर से खड़ी तो हो गयी किंतु खड़े होते ही दोनों हाथो से रावण की कमर को कस कर पकड़ कर हाँफने लगी - ‘‘नहीं ! मैं नहीं खड़ी हो पाऊँगी।
रावण ने अपनी भुजाओं की पकड़ उसकी पीठ पर सख्त करते हुये उसे थाम लिया। फिर बोला -
‘‘देखा शिव के चन्द्रहास का अपमान करने का मजा !’’
वेदवती कुछ नहीं बोली बस आँसुओं से भीगी आँखें उठाकर रावण की आँखों में झांका। वह कस कर रावण से लिपटी हाँफ रही थी। लिपटी क्या, वह एक तरह से रावण की भुजाओं में झूल रही थी। उसके पैर ढीले पड़े था, शायद वे अपना वजन नहीं सहन कर पा रहे थे।
‘‘स्वयं को स्थिर करो’’ कहते हुये रावण ने अपनी पकड़ जैसे ही जरा सी ढीली की वह फिर कराह कर नीचे फिसलने लगी।
‘‘मुझे बिठाल दो, मैं खड़ी नहीं हो पाऊगी।’’
रावण ने उसे आहिस्ता से नीचे बैठा दिया। फिर उसने उसके पैरों को एड़ियों के पास से पकड़ कर एक-एक कर ऊपर नीचे किया। हर बार वह तड़प कर कराह उठी पर पैर मुड़ रहे थे, सीधे भी हो रहे थे।
‘‘कोई गंभीर बात नहीं है। कोई टूट-फूट नहीं है। बस ऊपरी चोट है, आसानी से ठीक हो जायेगी।’’ रावण ने उसे दिलासा दी।
‘‘पर दर्द बहुत हो रहा है। अभी तुमने जब पैर हिलाये तो जैसे जान ही निकल गयी थी।’’
वेदवती आज भी वही धोती पहने थी जो इस सब में अस्त-व्यस्त हो गयी थी। कई जगह से फट गयी थी। पैर मोड़ने के क्रम में वह घुटनों के बहुत ऊपर आधी जंघाओं तक आ गई थी। उस धोती के पीछे से उसका ज्वार की भाँति उफनता यौवन झांक रहा था। वेदवती को संभवतः पीड़ा के चलते अपने वस्त्रों की अस्त-व्यस्त स्थिति का भान नहीं था पर उनसे बाहर निकलने को छटपटाता उसका यौवन रावण के संयम की जैसे परीक्षा ले रहा था। उसने अपनी निगाह उसके चेहरे पर केन्द्रित कर दी।
कुछ पल वह यूँ ही सान्त्वना की बातें करता रहा। वेदवती की साँसों की गति धीरे-धीरे सामान्य हो चली थी।
‘‘चलो अब उठने का प्रयास करो।’’
‘‘नहीं ! मैं नहीं उठ पाऊँगी।’’ वेदवती जैसे उठने के नाम से ही भयभीत हो गई थी, उसने सिर हिलाते हुये कहा।
‘‘उठना तो पड़ेगा ही। उठो ...’’ उसने खड़े होते हुये अपना हाथ बढ़ा दिया। वेदवती ने हाथ पकड़ लिया तो रावण ने हाथ खींच कर उसे खड़ा कर दिया। वह फिर जोर से कराह उठी। रावण ने उसे बगलों से पकड़ कर थाम लिया फिर धीरे से उसका वजन उसीके पैरों पर छोड़ते हुये कहा - ‘‘पैरों पर वजन सहने का प्रयास करो।’’
वेदवती इस बार कराहती हुई अपने पैरों पर टिक गयी। उसने अपने ओंठ कराह रोकने के लिये दाँतों से दबाये हुये थे। उसका सिर स्वयमेव रावण के वक्ष पर टिक गया और वह जोर-जोर से साँसें लेने लगी।
रावण ने अपना बायाँ हाथ बगल से निकाल और सामने से दूसरी तरफ लाते हुये उसकी बायीं भुजा थाम ली। वह दूसरी ओर झुकने लगी, वैसे ही रावण ने अपनी दायीं भुजा उसकी पीठ पर से ले जाते हुये उसकी दाहिनी भुजा पकड़ कर उसे थाम लिया - ‘‘चलो, अब पैर बढ़ाने का प्रयास करो।’’
‘‘मुझसे नहीं होगा।’’ उसने फिर कराहते हुये कहा।
‘‘तो क्या यहीं बैठे रहने का इरादा है ?’’
‘‘जब नहीं चला जाता तो क्या करूँ ?’’ इस बार वेदवती भी झुंझला पड़ी।
‘‘अरे प्रयास तो करो, कुटिया तक कैसे चलोगी ?’’
‘‘उस दिन कैसे ले गये थे ?’’
‘‘उस दिन तो तुम अचेत थीं !’’
‘‘आज भी हुई जाती हूँ।’’ इस पीड़ा में भी उसने शोखी से कहा और आँखें बंद कर अपने शरीर को ढीला छोड़ दिया।
रावण हँस पड़ा। उसने एक क्षण सोचा फिर धीरे से उसे गोद में उठा लिया और कदम बढ़ा दिये।
कुछ कदम बढ़ते ही वेदवती ने आँखें खोल दीं। बोली -
‘‘मुझे बचपन में जब चोट लग जाती थी तो पिता भी ऐसे ही गोद में उठा लेते थे और ...’’ कहते हुये उसने अपनी बाहें रावण के गले में पिरो दीं - ‘‘मैं ऐसे उनके गले में बाहें डाल देती थी।’’
‘‘तो मैं तुम्हारा पिता हूँ ?’’ रावण ने तुनकते हुये कहा।
‘‘मुझे नहीं पता कि तुम मेरे क्या हो ? पर मुझे तुम अच्छे लगते हो।’’
‘‘फिर क्या करते थे तुम्हारे पिता ? रास्ते में कहीं पटक देते होंगे कि चल अब अपने पैरों पर !’’
‘‘पटक क्यों देते भला ?’’ तिरछी नजरों से रावण को देखते हुये वेदवती बोली - ‘‘वे तो प्यार से मेरे कपोल पर चुम्बन ले लेते थे।’’
‘‘ऐसे ?’’ रावण ने उसके कपोल पर चुम्बन लेते हुये कहा।
‘‘बिलकुल ऐसे ही !’’
‘‘एक ही ओर लेते थे ?’’
‘‘नहीं !’’ कहते हुये उसने दूसरा गाल भी सामने कर दिया।
रावण ने दूसरे गाल का भी एक प्रगाढ़ चुम्बन ले लिया।
कुछ देर वह रावण की आँखों में आँगे डाले अजीब सी निगाह से देखती रही फिर अचानक उसने अपनी बाहें रावण के गले में कस दीं और अपने ओंठ रावण के ओंठों पर रख दिये।
कुटिया पर पहुँच कर रावण ने उसे लिटा कर खोज कर बूटियों का लेप बना कर वेदवती के पैरों पर लगा दिया। जब वह कुछ सामान्य हुई तो रावण लौटने को उद्यत हुआ तो वेदवती ने उसे रोक लिया।
और फिर उस रात प्रकृति का पुरुष से मिलन हो ही गया।

क्रमशः

मौलिक एवं अप्रकाशित

-सुलभ अग्निहोत्री

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Comment by Sulabh Agnihotri on July 31, 2016 at 12:12pm

बहन Kalpana Bhatt Ji ! लेख नहीं यह उपन्यास चल रहा है। आप देख ही रहे हैं यह 38 वीं किश्त है। कृपया उसी आधार पर इसका मूल्यांकन करें।

Comment by Sulabh Agnihotri on July 31, 2016 at 12:11pm

बंधुवर Amit Tripathi Azaad Ji! लेख नहीं यह उपन्यास चल रहा है। आप देख ही रहे हैं यह 38 वीं किश्त है। कृपया उसी आधार पर इसका मूल्यांकन करें।

Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on July 31, 2016 at 7:27am
बढ़िया लेख । बधाई स्वीकारें ।
Comment by Amit Tripathi Azaad on July 30, 2016 at 3:18pm

शानदार लेख अग्निहोत्री जी बधाई स्वीकार करें 

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