For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

राम-रावण कथा (पूर्व-पीठिका) 39

पूर्व से आगे .........


उसी दिन से जिस दिन वेद ने पिता ने मंगला के महामात्य जाबालि के यहाँ पढ़ने जाने की बात की थी घर में उथल-पुथल मची हुई थी। जैसा अपेक्षित था वैसा ही हुआ था, बल्कि उससे भी बुरा। उसी क्षण से अम्मा ने मंगला के हाथ पीले करने की अनिवार्यता की घोषणा कर दी थी। मंगला, वेद और उनकी भाभी तीनों ही डाँट-फटकार की आशा कर रहे थे। उनके हृदयों में कहीं एक आशा की किरण भी साँस ले रही थी कि शायद बाबा अम्मा को भी राजी कर ही लें। बाबा नाराज तो हुये थे किंतु यह समझाये जाने पर कि यह प्रस्ताव स्वयं महामात्य ने दिया है, वे थोड़ा नरम पड़ गये थे। उन्होंने अम्मा से बात करने का आश्वासन दे दिया था।


उन्होंने अपने वायदे के अनुसार ही अम्मा से बात भी की थी और बात करते ही अम्मा फट पड़ी थीं। उन्होंने उसी क्षण घोषणा कर दी थी कि बस अब और नहीं, फौरन कोई लड़का खोज कर मंगला का विवाह कर दिया जाये। यह घोषणा मात्र घोषणा ही नहीं थी, आदेश था बाबा और मंगला के सबसे बड़े भाई के लिये। भाई का मत भी इस विषय में पूर्णतः अम्मा के ही साथ था। मंगला बहुत रोई थी किंतु अम्मा ने एक नहीं सुनी थी। वे बस इतना ही बोली थीं ‘निर्णय हो गया सो हो गया। उन्हें अपने कुल की नाक नहीं कटवानी। कुल के आचारों की रक्षा का भार हमारी सास हमें सौंप कर गयी हैं और वे अपने प्राण रहते इसे आँ नहीं आने दे सकतीं।’ इतना कहकर वे मंगला को रोता छोड़ कर चली गयीं थीं और उस दिन देर रात तक काम के नाम पर बर्तनों को पटकने की आवाजें आती रही थीं। मंगला ने विरोध में रात में खाना भी नहीं खाया था किंतु इससे अम्मा के निर्णय पर कोई असर नहीं पड़ा था। पिता ने रात में पूछा भी था कि मंगला ने खाना खा लिया किंतु अम्मा ने यह कहते हुये कि पड़ा रहने दो। एक जून भूखी रहने से मर नहीं जायेगी, बात का पटाक्षेप कर दिया था। दूसरे दिन भाभी ने समझा-बुझा कर उसे खाना खिला दिया था।


उस दिन के बाद से अम्मा चाहे कुछ भी भूल जायें नित्य सुबह बाबा को लड़का तलाशने की याद दिलाना और रात में तलाश कितनी कामयाब हुई इसकी जानकारी लेना नहीं भूलती थीं। बाबा को मंगला से सहानुभूति थी, वे किसी न किसी बहाने बात को टालने का प्रयत्न करते थे नतीजे में रोज दोनों की झड़प होती थी और बाबा चुपचाप खाना खाकर बाहर निकल जाते थे।


भाई की मंगला से कोई दुश्मनी नहीं थी किंतु उसे परिवार की नाम अधिक प्यारी थी। एक माह बीतते न बीतते उसनेने मंगला की बात एक जगह पक्की भी कर दी थी। लड़के का नाम लक्ष्मीदास था। उसका पिता अत्यंत सम्पन्न वणिक था। लक्ष्मीदास को मिलाकर वे छः भाई थे जिनमें लक्ष्मी का नम्बर तीसरा था। बड़े दोनों भाइयों के विवाह हो चुके थे। उनकी औलादें भी थीं।


जैसे ही भाई ने घर पर सूचना दी थी, अम्मा ने पूजाघर में जाकर भोलेनाथ के चरणों में सिर रख दिया था और फौरन प्रसाद चढ़ाकर पूरे मोहल्ले में बाँटा था। मंगला ने प्रसाद लौटा दिया था। उसने भी स्पष्ट घोषणा कर दी थी कि उसे यह विवाह नहीं करना। केवल बाबा और भाभी ने ही उसकी ओर देखा था, कुछ समझाना भी चाहा था किंतु अम्मा के भय से दोनों को ही साहस नहीं हुआ था। अम्मा ने तो उसकी बात पर कान ही नहीं दिया था।


इस बात को आज तीसरा दिन था। मंगला ने उस दिन से खाना भी नहीं खाया था। बस पानी पी रही थी। भाभी किसी तरह दिन में एक दो-बार उसे मना कर, अपनी सौगंध देकर, खुद भी न खाने का वास्ता देकर, दूध पिलाने में अवश्य सफल हो गई थी किंतु उसे समझ नहीं आ रहा था कि यह कब तक चल पायेगा। अम्मा तो जैसे मंगला की दुश्मन ही हो गयी थीं। वे अकेले में तो छुप कर रो लेती थीं किंतु सामने उनका चेहरा हर समय तना ही रहता थ। ऐसा लगता था जैसे मंगला के निराहार रहने से उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता था।


आज साँझ को जैसे ही बाबा लौटे थे, अम्मा ने उन्हें पानी देते हुये सवाल दाग दिया था -


‘‘पंडित जी से बात हुई ?’’
‘‘वेद की अम्मा ! क्यों इतनी उतावली मचाये हो। उसकी ब्याह की आयु तो हो जाने दो। उसे मन तो बना लेने दो।’’
‘‘और कब होगी ब्याह लायक, बुढ़ापे में ? चैदह साल की तो हो गयी है।’’
‘‘चैदह साल की आयु भी कहीं विवाह की आयु होती है ? फिर मन से तो वह अभी निरी बच्ची ही है।’’
‘‘तो क्या हो गया ? देख नहीं रहे कैसी ताड़ ऐसी बढ़ रही है ? अच्छा लड़का मिल रहा है, शीघ्रता से तिथि तय करो और ब्याह कर दो। जब तक ये यहाँ रहेगी, यही कलेस मचाये रहेगी।’’
मंगला जो अब तक कमरे में थी यह वार्ता सुनकर निकल आई थी। आते ही वह बीच में बोल पड़ी -
‘‘मुझे नहीं करना है विवाह।’’
‘‘तो क्या सारे जीवन हमारी छाती पर मूँग दलेगी ?’’ अम्मा चीख पड़ी।
‘‘मैं ऐसे व्यक्ति से ही विवाह करूँगी जो पढ़ा-लिखा हो, जो मुझे भी पढ़ा सके या पढ़ने में सहायता कर सके।’’
‘‘तू समझती क्यों नहीं बेटा ? ऐसा नहीं हो सकता’’ पिता ने फिर समझाना चाहा।
‘‘क्यों नहीं हो सकता पिता जी ? क्या पूरे समाज में कोई भी ऐसा लड़का नहीं मिलेगा जो मेरी बात को समझ सके ?’’
‘‘ये ऐसे नहीं मानेगी। लातों के भूत बातों से नहीं मानते।’’ कहते हुये मंगला की माँ ने उसकी चोटी पकड़ ली और झकझोरने लगी - ‘‘अब जो एक मार भी मुँह से न निकली तो काट कर गाड़ दूँगी।’’ कहने के साथ ही उनकी आँखों में आँसू आ गये। मंगला की यह जिद उसे बहुत अखर रही थी। उसे बार-बार क्रोध आ रहा था। हालांकि समझ खुद मंगला को भी नहीं आ रहा था कि उसमें इतनी हिम्मत कहाँ से आ गयी, जो वह इस तरह से सबके सामने डट कर खड़ी हो सकी है।
‘‘अरे रे रे रे ... ! यह क्या कर रही हो ? बड़ी हो गयी है बिटिया, उसे धीरे से समझाओ।’’ मंगला के पिता अपनी पत्नी की इस हरकत से अचकचा गये, उन्होंने अपनी पत्नी का हाथ पकड़ते हुये कहा।
‘‘आप तो रहने ही दीजिये। आप ही ने तो सिर चढ़ाया है इसे जो ऐसी अनोखी टेक लिये बैठी है।’’
बड़ी मुश्किल से मंगला के पिता मंगला को उसकी माँ से छुड़ा पाये।
‘‘तो फिर आप ही समझाइये इसे कि टेक छोड़ दे। जैसा यह चाहती है वैसा लड़का कोशल में तो कहीं नहीं मिलेगा।’’
‘‘तो मत कीजिये न मेरा विवाह। मैं ऐसे ही रह लूँगी।’’
‘‘मैं ऐसे ही रह लूँगी और सारी बिरादरी में हमें थुकवायेगी। नहीं करना विवाह तो मर जाके कहीं। जीवन भर तो तुझे बिठा कर नहीं खिला सकते हम।’’
‘‘क्या कह रही हो मंगला की माँ ? तुम्हें तनिक भी लिहाज नहीं कि तुम अपनी पुत्री से बात कर रही हो ! अच्छा अब तुम चुप करो और जाओ भीतर। मेरी बेटी मेरे लिये बोझ नहीं है। मैं खिला लूँगा उसे जीवन भर।’’ कहते हुये पिता ने मंगला को अपनी बाहों में समेट लिया। उनकी आँखों में भी आँसू झलक आये थे।
‘‘हाँ बिठाये रखो, कटवाओ नाक पूरे नगर में।’’ कहती हुई माँ तमतमा कर रोती हुई दूसरे कक्ष में चली गयी। मंगला की भाभी भी, जो चुपचाप सारा वार्तालाप सुन रही थी, उन्हींके साथ चली गयी। पिता-पुत्री अकेले रह गये कक्ष में।
‘‘बाबू जी आप रो रहे हैं। बहुत दुःख दे रही हूँ मैं आपको ?’’ मंगला बोली। अभी तक उसके मन में पिता के लिये जो आक्रोश था कि उन्होंने उसे पढ़ने नहीं दिया, उनके आँसुओं के साथ पिघल कर बह गया था।
‘‘अपनी विवशता पर रो रहा हूँ बेटा। मैं तो स्वयं चाहता हूँ कि अपनी बेटी को जितना वह चाहे पढ़ने दूँ किंतु मनीषियों ने तो स्त्रियों का पढ़ना निषेध कर रखा है। बता मैं क्या करूँ ? सबके विरुद्ध तो नहीं जा सकता न मैं ! इन परिस्थितियों में कौन गुरु पढ़ायेगा तुझे। जो भी तुझे पढ़ायेगा उसे उसके शेष शिष्य छोड़ नहीं जायेंगे ? और फिर सारा समाज भी तो उसके विरुद्ध खड़ा हो जायेगा। उसका अपने का जीना मुहाल हो जायेगा।’’
‘‘बाबा महामात्य कह तो रहे हैं कि वे मुझे पढ़ायेंगे। कोशल में महामात्य का कितना सम्मान है क्या आप नहीं जानते ?’’
‘‘बिटिया तो क्यों उनका भी सम्मान नष्ट करनी पर तुली है। जिस दिन से वे तुझे दीक्षा देंगे, नगर में उनका सम्मान भी नष्ट हो जायेगा।’’
‘‘आप भी बाबा अम्मा की ही भाषा में बोलने लगे। महामात्य का सम्मान क्यों कम हो जायेगा भला ? सारी दुनियाँ तो अम्मा के जैसे ही नहीं सोचती होगी।’’
‘‘सोचती है बेटा। तू हठ छोड़ दे, मैं किसी तरह से तेरी अम्मा को समझा लूँगा, अभी तेरा विवाह नहीं होने दूँगा।’’
‘‘मैं क्या कोई अनुचित हठ किये हूँ ? जाने कितने लड़कियाँ मेरे समान पढ़ना चाहती होंगी ! जाने कितने पिता आपकी तरह अपनी कन्याओं को पढ़ाना चाहते होंगे ! समाज और ब्राह्मणों के भय से वे साहस नहीं कर पाते। आज महामात्य हमें सहारा देने को तत्पर है, महामात्य के होते कोई कुछ नहीं कह पायेगा। मैं बढ़ूँगी तो सारी लड़कियों की राह खुल जायेगी।’’
‘‘बेटी ! तू अभी बच्ची है। तूने जगत व्यवहार देगा नहीं है इसलिये आशावादी है। तुझे पढ़ाना आरंभ करते ही महामात्य भी अकेले पड़ जायेंगे। कुछ नहीं कर पायेंगे वे। वे अकेले होंगे और सारा ब्राह्मण समुदाय एक ओर होगा। ब्राह्मण ही क्यों, ब्राह्मणों से भी पहले हमारे ही अपने लोग हमारे विरुद्ध होंगे। क्या पता कल पंचायत हमें बिरादरी से बाहर ही कर दे। सब कुछ सोचना पड़ता है बिटिया।’’
मंगला कुछ नहीं बोली, बस बैठी सिसकती रही।
‘‘आज तक ऋषि कन्याओं को अथवा राजकन्याओं को छोड़कर कोशल में किसी कन्या ने गुरुकुल का मुख नहीं देखा। मनु महाराज ने यह निषेध क्यों लगाया था मुझे नहीं ज्ञात। इसके विरुद्ध उन्होंने किसी दण्ड का भी विधान किया है या नहीं मुझेे नहीं ज्ञात। किंतु हमारा समाज अंधा-बहरा है। वह न कुछ देखता है, न कुछ सुनता है, न समझता है, उसने तो बस बंद आँखों से एक बार जो रस्सी पकड़ ली है, बस उसे ही पकड़े अँधेरे में चला जा रहा है। वह न तो स्वयं उस रस्सी से अलग मार्ग खोजने को तत्पर है न किसी अन्य को ऐसा करने देता है, फिर भले ही सब कुयें में गिरें या खाईं में।’’
इतने में ही अम्मा फिर वापस आ गयीं। आते ही वे इस बार अपेक्षाकृत शांत स्वर में बोलीं -
‘‘समझा लिया अपनी दुलारी को ? आया कुछ समझ में ?’’
किसी ने कोई उत्तर नहीं दिया तो अम्मा पुनः बोलीं -
‘‘एक बात आप भी समझ लें और यह भी समझ ले, आती सहालग में इसका विवाह होना है और इसी लड़के से होना है। फिर इसके ससुराल वाले इसे पढ़ायें चाहें कुयें में झोंक दें, हमें नहीं कुछ कहना।’’
‘‘क्या अनर्गल बातें करतीं हो तुम भी वेद की अम्मा ? शांति से समझा तो रहा हूँ मैं, समझ जायेगी। तुम अपने मन को समझाओ और शांति से सोओ जाकर।’’
‘‘सुना तूने, मैंने कुछ कहा ?’’ अम्मा मंगला की ठोढ़ी हिलाते हुये बोलीं। फिर अपने पति से बोली-
‘‘ये कुछ नहीं समझने वाली, इसकी मति फिर गई है।’’
‘‘अच्छा तुम जाओ अब।’’ पिता ने कुछ तेज स्वर में कहा।
‘‘मैं जा रही हूँ किंतु इतना समझ लो यदि भली लड़कियों के जैसे मानी नहीं विवाह के लिये तो फिर इसके लिये कोई स्थान नहीं है मेरे घर में। जहाँ इच्छा हो मरे जाकर।’’ कहते-कहते वे फिर रोने लगीं - ‘‘विधाता किस जनम के पापों का फल दिया हमें ऐसी बेटी देकर ?’’


मंगला के पिता ने कुछ कहा नहीं, बस क्रोध से उसे घूर कर देखने लगे। पता नहीं उस दृष्टि को समझ कर या अपने आप ही अम्मा उठीं और पल्लू से आँसू पोंछते हुये चली गयीं।

दूसरे दिन घर में हाहाकार मच गया। मंगला कहीं नहीं मिल रही थी। रात में पता नहीं किस समय वह चुपचाप कहीं निकल गयी थी। यह ऐसा मसला था जिसके विषय में किसी से कुछ कहा भी नहीं जा सकता था। सारे मोहल्ले में चुपचाप सुराग लिया गया किंतु उसका कहीं कोई चिन्ह नहीं था।

क्रमशः


मौलिक एवं अप्रकाशित


-सुलभ अग्निहोत्री

Views: 448

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

Admin replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-181
"स्वागतम"
3 hours ago

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey commented on Saurabh Pandey's blog post कौन क्या कहता नहीं अब कान देते // सौरभ
"आदरणीय रवि भाईजी, आपके सचेत करने से एक बात् आवश्य हुई, मैं ’किंकर्तव्यविमूढ़’ शब्द के…"
14 hours ago
Admin posted a discussion

"ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-181

आदरणीय साहित्य प्रेमियो, जैसाकि आप सभी को ज्ञात ही है, महा-उत्सव आयोजन दरअसल रचनाकारों, विशेषकर…See More
Wednesday
anwar suhail updated their profile
Dec 6
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' posted a blog post

न पावन हुए जब मनों के लिए -लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

१२२/१२२/१२२/१२****सदा बँट के जग में जमातों में हम रहे खून  लिखते  किताबों में हम।१। * हमें मौत …See More
Dec 5
ajay sharma shared a profile on Facebook
Dec 4
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-128 (विषय मुक्त)
"शुक्रिया आदरणीय।"
Dec 1
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-128 (विषय मुक्त)
"आदरणीय शेख शहज़ाद उस्मानी जी, पोस्ट पर आने एवं अपने विचारों से मार्ग दर्शन के लिए हार्दिक आभार।"
Nov 30
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-128 (विषय मुक्त)
"सादर नमस्कार। पति-पत्नी संबंधों में यकायक तनाव आने और कोर्ट-कचहरी तक जाकर‌ वापस सकारात्मक…"
Nov 30
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-128 (विषय मुक्त)
"आदाब। सोशल मीडियाई मित्रता के चलन के एक पहलू को उजागर करती सांकेतिक तंजदार रचना हेतु हार्दिक बधाई…"
Nov 30
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-128 (विषय मुक्त)
"सादर नमस्कार।‌ रचना पटल पर अपना अमूल्य समय देकर रचना के संदेश पर समीक्षात्मक टिप्पणी और…"
Nov 30
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-128 (विषय मुक्त)
"आदाब।‌ रचना पटल पर समय देकर रचना के मर्म पर समीक्षात्मक टिप्पणी और प्रोत्साहन हेतु हार्दिक…"
Nov 30

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service