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जब से देखा है उन्हें'रहा न खुद का ज्ञान।

जादूगरनी या कहूँ'मद से भरी दुकान।।1 

दुख की रजनी जब गयी'सुख का हुआ प्रभात।
तरुअर देखो झूमते'नाच रहे हैं पात।।2

उपवन में ले आ गयीं'अनुपम एक सुगंध।
मन भँवरे ने कर लिया'जीने का अनुबंध।।3

मन उपवन में बस गया'उनका उजला चित्र।
बाकी सब धुँधला दिखे'अब तो मुझको मित्र।।4

नीति नियम हों साथ में'नेह भरा लघु कोष।
हिय उपवन में तब रहे'परम शांति संतोष।।5

मानवता की जीत हो,आपस में हो प्यार।।
नेह दीप जलता रहे,ऐसा हो त्यौहार।।6

काव्य सृजन का मैं सदा'करता हूँ रसपान।।
दर्दों पर औषधि यहीं'कोमल मृदुल निदान।।7

आपस में सौहार्द्र हो'आपस में हो प्यार।
छोटी छोटी बात पर'करे नहीं तकरार।।8

सब मिट्टी का है बना,शीशे की दीवार।
तेरा मेरा कुछ नहीं'फिर क्यों है तकरार।।9

उनकीं नज़रों से मिला'उत्तर यूँ इंस्टेंट।।
बेसुध सा मैं हो गया'मानों लगा करंट।।10

जीने में आये मज़ा'कुछ ऐसा कर डूड।
गम में यूँ कर लीजिये'खुशियाँ भी इन्क्लूड।।11

सब मतलब के दोस्त हैं'सब मतलब के यार।
कर ही लूँ अब सोचता'दुश्मन से ही प्यार।।12

देख देख घायल हुआ'अधर गुलाबी रंग।
कंचन काया साथ में'मृदुल अधखुला अंग।।13

-राम शिरोमणि पाठक
मौलिक/अप्रकाशित

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प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on December 10, 2014 at 11:09am

दोहावली बहुत सुन्दर रची है भाई राम शिरोमणि पाठक जी। दूसरे दोहे के पहले पद में "सुख का हुआ प्रभात।" पर दोबारा ध्यान दें। प्रभात को पुल्लिंग नहीं स्त्रीलिंग की तरह इस्तेमाल किया जाता है।

Comment by ram shiromani pathak on December 5, 2014 at 4:06pm

आदरणीय गोपाल नारायन जी अनुमोदन व उत्साह वर्धन हेतु बहुत बहुत आभार ///सादर

Comment by ram shiromani pathak on December 5, 2014 at 4:05pm

आदरणीय प्रिय  भाई नीरज जी उत्साह वर्धन हेतु बहुत बहुत आभार आपका ///सादर

Comment by ram shiromani pathak on December 5, 2014 at 4:02pm
आदरणीय जवाहर लाल जी अनुमोदन व उत्साह वर्धन हेतु बहुत बहुत आभार ///सादर
Comment by Ram Ashery on December 4, 2014 at 9:16pm

आपने बहुत ही प्रभाव पूर्ण ढंग से अपने विचारों को रखा है आपको बहुत बहुत बधाई हो ।

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 3, 2014 at 6:40pm

ram shiromani jee

इतने भावपूर्ण दोहे  कही-कही  शिल्प से प्रताड़ित है  i आ० राजेश कुमारी जी  का सूक्ष्म अध्ययन आवश्यक है I एक उदाहरण - 

कर ही लूँ अब सोचता 'दुश्मन से ही प्यार।।12 इसमें दो बार ही का प्रयोग खटकता है  i यूँ कर लें  तो- कर ही लूँ अब सोचता' दुश्मन से मैं  प्यार।---- या फिर ---कर ही लूँ मैं  सोचता 'दुश्मन से अब  प्यार i

आप इतने बढ़िया दोहे लिख रहे है , किसी को मौका न दें i

Comment by Neeraj Nishchal on December 3, 2014 at 1:15pm
भाई आजकल पाठक जी की कलम का ब्रेक फेल हो गया अब तो लिखते ही जायेँगे ठीक है आप लिखते जाइये हम गिनते जायेँगे क्योँ कि गिन ने की फुर्सत आपको कहाँ । अहा ! इतना सुंदर श्रगांर वर्णित किया है लगता है कालिदास महाकवि जी से दीक्षा ले ली है

आदरणीय पाठक जी सचमुच मेरे पास शब्द नहीँ है आप को इस दोहावली हेतु सादर बधाई ।
Comment by JAWAHAR LAL SINGH on December 3, 2014 at 12:58pm

आदरणीय राम शिरोमणि पाठक जी, आपने बड़ी अच्छी खिचड़ी बनाई, कहीं सुन्दर सन्देश तो कहीं श्रृंगार और प्यार ... सुधारात्मक सुझाव इस मंच की खासियत है... हम सब अनुग्रहीत होते हैं अगर सुन्दर सुधारात्मक सुझाव दिए जाते हैं...सादर!

Comment by ram shiromani pathak on December 3, 2014 at 12:10am
Shyam Ji bahut bahut aabhar Apka//saadar
Comment by ram shiromani pathak on December 3, 2014 at 12:07am
Hari Prakash Ji bahut bahut aabhar//saadar

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