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ग़ज़ल....दिल जला के रौशनी होती नहीं है-बृजेश कुमार 'ब्रज'

फाइलातुन फाइलातुन फाइलातुन

दर्द अपना यूँ सर-ए-बाज़ार कर के
क्या मिलेगा वक़्त से तक़रार कर के

कुछ नहीं हासिल,समझते क्यों नहीं हो
गम उठाना आह भरना प्यार कर के

सामने उस मोड़ पर कुछ अनमना सा
शख़्स इक बैठा है सब न्योछार कर के

बन्दगी उल्फत है मैं था इस गुमां में
वो नहीं आया अना को पार कर के

दिल जला के रौशनी होती नहीं है
ये भी 'ब्रज' ने देखा है सौ बार कर के


(मौलिक एवं अप्रकाशित)
बृजेश कुमार 'ब्रज'

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Comment

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Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on June 26, 2018 at 10:19am

तहेदिल से शुक्रिया ज़नाब गुमनाम जी...सादर

Comment by Samar kabeer on June 25, 2018 at 10:42pm

जनाब बृजेश कुमार 'ब्रज' जी आदाब,अच्छी ग़ज़ल हुई है,बधाई स्वीकार करें ।

'शख़्स इक बैठा है सब कुछ हार कर के'

इस मिसरे पर एक बार विचार कर लें?

Comment by gumnaam pithoragarhi on June 25, 2018 at 9:20pm

वाह अच्छी ग़ज़ल हुई है बधाई,,,,,,,

कृपया ध्यान दे...

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