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सरसी छन्द :
शिल्प :16,11 मात्राएँ चरणान्त गुरु+लघु
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प्रसंग : "धनुष यज्ञ" रामचरित मानस
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सुनें जनक के वचन लखन नें,उमड़ पड़ा आक्रोश ।।

दहल उठी थीं दसों दिशायें,देख लखन का जोश ।।
लगता ज्वालामुखी खड़ा हो,भरे हृदय में रोष ।।
या फ़िर जैसॆ प्रलय सामने,खड़ा हुआ ख़ामोश ।।

काँप उठी थी सभा समूची,नत भूपॊं की दृष्टि ।।
लगता सम्मुख खड़ा शेष अब,खा जाएगा सृष्टि ।।
भृकुटि तनीं भुजदण्ड फड़कते,रक्त वर्ण थे नैन ।।
मानों दो - दो दिव्य दिवाकर,प्रलय हेतु बेचैन ।।

रघुपति नें यह दृश्य देख कर,किया मौन संकेत ।।
पास लखन को बिठा लिया फिर,बोले कृपानिकेत ।।
शान्त चित्त सॆ अनुज सुनो यूँ,,उचित नहीं है क्रोध ।।
क्रोध बुद्धि का मारक होता,करता पथ अवरोध ।।

रघुवंश हमें सिखलाता है,रखना कुल की आन ।।
मान उसे ही मिलता जग में,जो करता सम्मान ।।
व्याकुल होना नहीं क्रोध में,रखना इतना ध्यान ।।
सदा क्रोध में होता लक्ष्मण,अपना ही नुकसान ।।

इक बेटी का बाप जनक है,हालत लीजे भाँप ।।
अंतर्द्वंद मचा है मन में,हृदय लोटता साँप ।।
एक ओर है क्वांरी बेटी,एक ओर प्रण आन ।।
सुता प्रेम के वशीभूत हो,दिया स्वयंवर ठान ।।

हम रखवारे ऋषि आश्रम के,लाये मुनिवर मांग ।।
फिर कैसे उनकी सुचिता पर,लग जानें दें दाग ।।
इसीलिये हे अनुज लखन अब,करो क्रोध का त्याग ।।
सहज सरल सुचि भाव भरेंगे,जीवन में अनुराग ।।

गाधि तनय नें अवसर देखा,कहा उठो श्रीराम ।।
धनुष यज्ञ को मिले पूर्णता,सुनिये शोभाधाम ।।
गुरु आज्ञा के पाते रघुवर,खड़े हुए नत शीश ।।
शूर वीर सब देख रहे थे,चिंतित था भुजबीस ।।

पहले नमन किया था शिव को,उठा लिया फिर चाप ।।
लगा भाल से प्रभू राम नें,ली गुरुता भी माप ।।
जैसे खींची डोर राम नें,चाप हुआ दो खण्ड ।।
तीनों तल थे लगे काँपने,गूँजा नाँद प्रचण्ड ।।

बजे नगाड़े ढोल मजीरे,हुई सुमन बरसात ।।
जनकपुरी में खुशियाँ आईं,ले करके बारात ।।
मानस में यह गाथा गाई,गोस्वामी मर्मज्ञ ।।
"राज" समर्पित आप सभी को,शब्द सारथी तज्ञ ।।


डॉ राज बुन्देली
19/12/2016

मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Samar kabeer on December 20, 2016 at 5:11pm
जनाब डॉ.राज बुन्देली साहिब आदाब,बढ़िया छन्द लिखे आपने,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
Comment by Sushil Sarna on December 20, 2016 at 12:57pm

पहले नमन किया था शिव को,उठा लिया फिर चाप ।।
लगा भाल से प्रभू राम नें,ली गुरुता भी माप ।।
जैसे खींची डोर राम नें,चाप हुआ दो खण्ड ।।
तीनों तल थे लगे काँपने,गूँजा नाँद प्रचण्ड ।।

बजे नगाड़े ढोल मजीरे,हुई सुमन बरसात ।।
जनकपुरी में खुशियाँ आईं,ले करके बारात ।।
मानस में यह गाथा गाई,गोस्वामी मर्मज्ञ ।।
"राज" समर्पित आप सभी को,शब्द सारथी तज्ञ ।।


वाह वाह आदरणीय बुन्देली जी वाह क्या मंज़रकशी की आपने। ..... मन मोह लिया आपकी इस सरसी छंद की प्रस्तुति ने .... इस अनुपम और अप्रतिम प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार सर।

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