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ग़ज़ल - पर हृदय में आज भी जीती चुभन है - गिरिराज भन्डारी

2122    2122    2122

जब हवायें चल रहीं हैं क्यों घुटन है

सूर्य है उजला तो क्यों काला गगन है

 

कल बहुत उछला था अपनी जीत पर जो

आज क्यों हारा हुआ बोझिल सा मन है

 

चिन्ह घावों का नहीं है पीठ पर अब

पर हृदय में आज भी जीती चुभन है

 

मन ललक कर आँखों को उकसा रहा था

कह रहा संसार पर दोषी नयन है

 

सत्य तर्कों में समाया है भला कब ?

तर्क झूठों को बचाने का जतन है

 

क्या हृदय-मन, सोच जीती है कहीं पर

या कि जीता आ रहा जो , सिर्फ तन है

 

गालियाँ पारस सी होने लग गयीं क्या ?

जिसपे बरसी आज वो चमका रतन है

 

सिद्धि को सर पर उठाने की ललक में 

आज गाली खा रहा हर आचमन है

************************************

मौलिक एवँ अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Rajendra kumar dubey on June 3, 2016 at 12:37pm
आदरणीय गिरीराज जी बहुत उम्दा गजल से रूबरू कराया आपने
सत्य तर्कों में समाया है भला कब?
तर्क झूठो को बचाने का जतन है
क्या बात है
बहुत बहुत बधाई।
Comment by Samar kabeer on June 3, 2016 at 11:39am
जनाब गिरिराज भंडारी जी आदाब,बहुत उम्दा ग़ज़ल हुई है, शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएँ।
दूसरे शैर के ऊला मिसरे का आख़री शब्द'जो'को अगर "वो"करलें तो केसा रहे ?

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