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पहेली दिल की सुलझाऊँ तो कैसे
मैं इससे हार भी जाऊं तो कैसे।

लिपट जातें हैं पावों से बगूले
मैं बाहर दश्त से आऊँ तो कैसे।

पुकारे आसमां बाहें पसारे
परों बिन पास मैं जाऊं तो कैसे ।

धड़कता है वो दिल में दर्द बनकर
मैं उसको भूल भी जाऊं तो कैसे ।

गुलो पर बूँद मैं शबनम की बनके
हवा में फिर से घुल जाऊं तो कैसे।

उमड़ती ज़ह्ण में ख़्वाबों की नदियां
समन्दर मुट्ठी में लाऊँ तो कैसे

बदन पर पैरहन यादों का तेरा
नज़र आईने को आऊँ तो कैसे।

जवानी लौट के आये न फिर से
कि सहरा में नदी लाऊँ तो कैसे

मैं गुड़िया मोम की सीमा वो पत्थर
उसे जलकर भी पिंघलाऊं तो कैसे ।

मौलिक और अप्रकाशित

सीमा शर्मा मेरठी

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Comment

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Comment by सीमा शर्मा मेरठी on December 30, 2015 at 12:07pm
आशुतोष साहेब तहे दिल से शुक्रिया
Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 30, 2015 at 12:00pm

बहुत खूब हार्दिक बधाई .

Comment by Dr Ashutosh Mishra on December 30, 2015 at 10:35am

आदरणीया सीमा जी ..आपकी दूसरी रचना पढने का मौका मिला ...दिल में उठते भावों का सजीव चित्रण करती इस शानदार शसक्त ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई एवं नव बर्ष की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ सादर 

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