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लघु कथा मट्ठियाँ

अम्मा  फ़ैल कर  जमीन पर   बैठी  आवाज़  करके  चाय  सुड़क  रही  थी I  मैं  अपने  दोनों  बच्चों  के  चेहरों  पर,  अम्मा  को  लेकर चिढ      साफ़  देख  पा  रही  थी I

" सविता  , तू  डब्बा भर के  मट्ठियाँ  क्यों  नहीं  बना  के  रख लेती ,I  सुबह  शाम  पकड़ा  दिया कर इनके हाथों में I दिन  भर  तंग  करते  हैं ये बना  वो  बना I"

" माँ , इन्हें  पसंद  नहीं  है मट्ठियाँ I"

" पसंद  नहीं  हैं ? अरे  तुम्हारी  मम्मा  की  बुआ , गर्मी  की छुट्टियों  में  आती  थी , दो  महीने  के  लिए अपने  बच्चों के साथ  ,और  दो  बड़े  बड़े डब्बे  भर  कर , मट्ठियाँ बना  के  लाती  थी  I   सब  बच्चे  वो  ही खाते  फिरे  थे सारे  दिन I,  और  सबसे ज्यादा  खाती   थी , ये  सविता , तुम्हारी  मम्मा "I

" मम्मा ,   वो  सारी  छुट्टियाँ  आप  लोगों  के  साथ  रहते थे i ?  डिस्टर्ब  नहीं  होते  थे  आप लोग i i 

मैं  अम्मा  को  देख रही  थी,  जो  आस पास से  बेखबर  फिर  से  चाय  सुड़कने  में  लग  गई थी ,   सुड़क  ,सुड़क I

  मौलिक  व  अप्रकाशित 

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Comment by विनय कुमार on July 6, 2015 at 12:54pm

वाह , वाह , आखिरी पंक्ति ने तो कमाल ही कर दिया | बेहतरीन लघुकथा , आज कल के बच्चे तो डिस्टर्ब होते हैं , उस समय तो ये खुशियों का प्रतिक होता था | बहुत बहुत बधाई इस लघुकथा पर आदरणीया ..


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on July 6, 2015 at 12:36pm

आदरणीया प्रतिभा जी, बहुत बढ़िया लघुकथा हुई है, लघुकथा अपने मर्म को संप्रेषित करने में सफल है, वाकई अब गर्मी की छुट्टियों में साथ रहने को डिस्टर्ब माना जाने लगा है. बहुत बहुत बधाई आपको इस प्रस्तुति पर 

चिढ़ शब्द की टंकण त्रुटी की ओर आपका ध्यानाकर्षण चाहता हूँ.

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