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एक वृक्ष  की  दो  संताने  तू  गुलाब  मैं काँटा  

जो  तुझको  फुसलाता  है  मैं धर देता हूँ चाँटा  

 

तितली भ्रमर और मधुमक्खी सब  मुझसे थर्राते

मेरे डर  से पास  तुम्हारे  आने  में  भय खाते

 

वन-कानन का पशु भी कोई परस नहीं कर पाता

मणिधर भी  तेरी  सुगंध को  लेने  से घबराता

 

हाथ बढ़ाता  यदि कोई  तो  मैं उसको डस लेता

पवन किन्तु बहलाकर मुझको कुछ तेरा रस लेता

 

सभी जीव तो  हैं  अवश्य रस-परिमल के दीवाने

पर निर्मम  मानव  का अंतर  इतने से ना माने

 

छिन्न तुझे पादप से करने की  उसकी अभिलाषा

मैं  पढ़ लेता हूँ  कदर्य के  पापी मन  की भाषा

 

पर  पापी  मानव पर मेरा  कोई जोर न चलता

वह अपनी दुर्दम्य लालसा से  जगती को छलता

 वस्त्र फाड़ कर यद्यपि उसको मैं घायल कर देता

नोक –भोंक को सहकर भी वह है तुझको हर लेता

 

देह छेद कर  तेरी फिर वह  धारण करता माला

देवों के  विग्रह पर  भी तू  असहज जाता डाला  

 

तेरे गुच्छ -माल का अर्पण मानव शव पर करते

फेंक राह पर निष्ठुरता से  चरण उसी पर धरते

 

टूट-टूट कर जीवन भर  तूने निज परिमल बाँटा   

अस्तु सुमन पाटल कहलाया  मैं काँटे का काँटा   

(मौलिक व् अप्रकाशित )

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Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 10, 2015 at 12:24pm

आ० सौरभ जी

आप को हिन्दी के हर युग और युगीन प्रवृत्तियों की जानकारी है , इसलिये  आपसे आशीष पाकर मुझे संतुष्टि मिलती है . सादर

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 10, 2015 at 12:22pm

-----आ० विजय सर !

आपके शेर ने दिल फडका दिया ------- वाह.सादर.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on June 10, 2015 at 1:15am

कहाँ ले गये हमें आदरणीय गोपाल नारायनजी ? उन दिनों में जब हम रामवृक्ष बेनीपुरी की पद्यात्मक गद्य रचनायें पढ़ा करते थे ! या माखनलालल् चतुर्वेदी की ’पुष्प की अभिलाषा’ पर निहाल हुआ करते थे ! आदरणीय, ऐसी ही रचनाएँ हम तब सत्तर-अस्सी के दशक में जूनियर-मिडिल स्कूलों के पाठ्य पुस्तकों में पढ़ा करते थे.   इस रचना की भाषा भी ’चालीस के दशक’ वाली है. प्रवाह भी ऐसा कि मन बह-बह जाये. व्यतीत हो चुके आत्मीय दिनो में फिर से ले जाने के लिए प्रभूत धन्यवाद.. एवं हार्दिक बधाई आदरणीय..
सादर

Comment by Dr. Vijai Shanker on June 7, 2015 at 10:49pm

बहुत सुन्दर रचना बनी है, आदरणीय डॉ o गोपाल नारायण जी, बधाई,
कुछ याद आ गया,
काँटा समझ के मुझसे न दामन बचाइये,
उजड़ी हुयी बहार की मैं यादगार हूँ।
सादर।

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 7, 2015 at 4:14pm

आ० सुनीलजी

आभार .

Comment by shree suneel on June 7, 2015 at 12:53pm
बहुत हीं सुन्दर प्रस्तुति है ये आदरणीय. अच्छी लगी.
" वस्त्र फाड़ कर यद्यपि उसको मैं घायल कर देता
नोक –भोंक को सहकर भी वह है तुझको हर लेता.. बधाई आपको आदरणीय.
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 6, 2015 at 6:26pm

सही पहचाना अनुज  . यह रचना सार छन्द् में  ही है . सादर .


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on June 6, 2015 at 2:33pm

वाह , क्या बात है , बड़े भाई , हार्दिक बधाई आपको । सार छंद मे तो नही है रचना ? 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 6, 2015 at 12:37pm

आ0  नरेन्द्र जी

आपकी मेहर .

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 6, 2015 at 12:36pm

प्रिय  महर्षि

बहुत आभार .

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