तरही ग़ज़ल
नयी उम्मीद की किरने जगाती है दिवाली में
वो नन्ही जान जब दीपक जलाती है दिवाली में
अगर हो हौसला दिल में तो तय है मात दुश्मन की
जला के खुद को बाती ये सिखातीहै दिवाली में
बताशे खील खिलते फूल दीपक झिलमिलाते यूं
नहीं मुफलिस को यादे गम सताती है दिवाली में
दियों का नूर चेहरे पर चले बल खा के शरमा के
वो कातिल शोख नजरों से पिलाती है दिवाली में
है रुत बहकी, हवा महकी, अजब दिलकश नज़ारा है
फिज़ाएं नूर की चादर बिछाती हैं दिवाली में
मुझे अफ़सोस हरदम ही रहा है दोस्तों इसका
क्यूँ जनता आग पैसों में लगाती है दिवाली में
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीया प्रतिभा जी ..आप की प्रतिक्रिया के लिए तहे दिल धन्यवाद सादर
आदरणीय हरी प्रकाश जी ..आप की उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए तहे दिल धन्यवाद सादर
आदरणीय जीतेन्द्र जी ,,रचना पअर आपकी उत्साह बढाती प्रतिक्रिया के लिए तहे दिल धन्यवाद सादर
आदरणीय डा. आशुतोष मिश्रा बहुत ही शानदार रचना
दियों का नूर चेहरे पर चले बल खा के शरमा के
वो कातिल शोख नजरों से पिलाती है दिवाली में ....वाह , हार्दिक बधाई ! सादर
बहुत खूबसूरत गजल हुई है आदरणीय डा. आशुतोष जी. दिली बधाई कुबूल कीजियेगा
मुझे अफ़सोस हरदम ही रहा है दोस्तों इसका
क्यूँ जनता आग पैसों में लगाती है दिवाली में ........बहुत सार्थक प्रश्न रख छोड़ा
आदरणीय सर्वेश जी .रचना आपको पसंद आयेमेरा प्रयास सार्थक हुआ .आपकी उत्साहवर्धन करती इस प्रतिक्रिया के लिए तहेदिल धन्यवाद सादर
आदरणीय विजय सर ..आपका स्नेह बस यूं ही मिलता रहे इसी कामना के साथ सादर
आदरणीय श्याम जी आपकी स्नेहिल प्रतिक्रिया के लिए तहे दिल धन्यवाद सादर
आदरणीय खुर्शीद जी रचना पर आपकी उर्जा प्रदान करती इस प्रतिक्रिया के लिए दिल से धन्यवाद ,,सादर
आदरणीय गिरिराज भाईसाब ..मैं आज जो कुछ भी लिख पा रहा हूँ उसमे आपके स्नेह और उत्साहवर्धन का बिशेष स्थान है ..आपका स्नहे यूं ही मिलता रहे .इसी कामना के साथ सादर
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