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जो मेरे कभी थे वो दूर हैं ( ग़ज़ल ) गिरिराज भंडारी

11212         11212       11212       11212 

 

हुये  रोशनी के प्रतीक जो , वो अँधेरों से  हैं  घिरे  हुये

ये कहो नही, जो कहे अगर, तो ये जान लें कि गिले हुये

 

न ही दर्द  की कोई जात है, न ही  शादमानी की कौम है

ये सियासतों की है साजिशें , जो  हैं  बांटने को पिले हुये

 

कोई क्या करे, कि निजाम में, है घुटन बहुत जो भरी हुई

कभी सोच कैद किये मेरे , कभी  होठ भी थे  सिले  हुये

 

मेरा  गम नही, कोई हंस है ,किया नीर क्षीर अलग अलग

जो मेरे  कभी थे वो दूर हैं , लगे  ग़ैर  थे वो  मिरे हुये

 

है हवा  भरी हुई   ह्र से , है  फ़िज़ा  फ़िज़ा  हुई  शाजिशें 

मुझे उन गुलों की भी फ़िक्र है, लगे आज हैं जो खिले हुये

 

**************************************************************

 मौलिक एवँ अप्रकाशित 

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Comment

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on March 25, 2014 at 7:07am

आदरणीय गुमनाम भाई , ग़ज़ल की सराहाना के लिये आपका बहुत बहुत आभार ॥


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on March 25, 2014 at 7:06am

आदरणीया राजेश जी , ग़ज़ल की सराहना कर हौसला अफज़ाई करने के लिये आपका तहे दिल से शुक्रिया ॥


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on March 25, 2014 at 7:04am

आदरणीय शिज्जू भाई , ग़ज़ल पर आपकी उत्साह वर्धन प्रतिक्रिया के लिये आपका बहुत शुक्रिया ॥


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on March 24, 2014 at 10:01pm

//है हवा भरी हुई ज़ ह्र से , है फ़िज़ा फ़िज़ा हुई शाजिशें
मुझे उन गुलों की भी फ़िक्र है, लगे आज हैं जो खिले हुये//

क्या बात है, बहुत ही प्यारा शेर, सभी अशआर अच्छे लगे, बधाई आदरणीय।

Comment by gumnaam pithoragarhi on March 24, 2014 at 9:53pm

 ही दर्द  की कोई जात है, न ही  शादमानी की कौम है

ये सियासतों की है साजिशें , जो  हैं  बांटने को पिले हुये

 

 

wah khoob sir ji bahut badhai achchhi gazal kahi hai


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on March 24, 2014 at 9:24pm

न ही दर्द  की कोई जात है, न ही  शादमानी की कौम है

ये सियासतों की है साजिशें , जो  हैं  बांटने को पिले हुये-----बहुत सुन्दर शेर 

एक लम्बी दुरूह बह्र को बहुत अच्छे से निभाया आपने ..हाँ मात्रा पतन कु छ ज्यादा हुआ है ...जो शायद जरूरी भी था 

बहुत-बहुत दाद कबूलें आदरणीय गिरिराज जी .

 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on March 24, 2014 at 9:18pm

आदरणीय गिरिराज सर बहुत सुन्दर ग़ज़ल कही है आपने बहुत बहुत बधाई आपको


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on March 24, 2014 at 6:08pm

आदरणीय  मुकेश भाई , ग़ज़ल की सराहना कर उत्साह वर्धन करने के लिये आपका शुक्रिया ॥

Comment by Mukesh Verma "Chiragh" on March 24, 2014 at 4:22pm

बस मज़ा आ गया.. बहुत बढ़िया..हज़ारों दाद इस खूबसूरत पेशकर पर.........सादर

मेरा  गम नही, कोई हंस है ,किया नीर क्षीर अलग अलग

जो मेरे  कभी थे वो दूर हैं , लगे  ग़ैर  थे वो  मिरे हुये.. .......................वाह..क्या कहने

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