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फाइलातुन   फाइलातुन   फाइलुन

(बहरे रमल मुसद्दस महजूफ)

वृत्ति जग की क्लिष्ट सी होने लगी

सोच सारी लिजलिजी होने लगी

भीड़ है पर सब अकेले दिख रहे 
भावनाओं में कमी होने लगी

चाहना में बजबजाती देह भर 
व्यंजना यूँ प्रेम की होने लगी

धर्म के जब मायने बदले गए 
नीति सारी आसुरी होने लगी

सूखती संवेदना घर-घर दिखे 
चेतना भी ठूँठ सी होने लगी

 

ढूँढ अब लाएँ कहाँ से हम किरण

रात सारी मावसी होने लगी

      -  बृजेश नीरज

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by Neeraj Neer on March 1, 2014 at 8:45pm

वाह बहुत सुन्दर 

भीड़ है पर सब अकेले दिख रहे 
भावनाओं में कमी होने लगी

चाहना में बजबजाती देह भर 
व्यंजना यूँ प्रेम की होने लगी... सुन्दर हिंदी ग़ज़ल.

Comment by kalpna mishra bajpai on March 1, 2014 at 8:42pm

आदरणीय नीरज सर आप की सार पूर्ण रचना की विवेचना करने योग्य मैं नहीं हूँ ।लेकिन निष्प्राण होते संसार को इस को समझने की जरूरत है । सर बहुत -बहुत बधाई /सादर

Comment by Sarita Bhatia on March 1, 2014 at 8:37pm

आदरणीय ब्रिजेश जी अच्छा शब्द चयन आपके इस प्रयास के लिए आपको हार्दिक बधाई 

Comment by annapurna bajpai on March 1, 2014 at 7:18pm

बहुत खूब , आदरणीय बृजेश जी अपने भी गज़लों पर हाथ आजमाना आरंभ कर ही लिया । आपको इस संदेश युक्त गजल के लिए हार्दिक बधाई । 

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