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दुनिया में जितना पानी है

उसमें

आदमी के पसीने का योगदान है

 

गंध भी होती है पसीने में

 

हाथ की लकीरों की तरह

हर व्यक्ति अलग होता है गंध में

फिर भी उस गंध में

एक अंश समान होता है

जिसे सूँघकर

आदमी को पहचान लेता है

जानवर

 

धीरे-धीरे कम हो रही है

यह गंध

कम हो रहा है पसीना

और धरती पर पानी भी  

-  बृजेश नीरज 

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by annapurna bajpai on January 27, 2014 at 6:10pm

आ0 बृजेश जी बहुत बढ़िया रचना , बधाई आपको । 

Comment by Meena Pathak on January 27, 2014 at 4:52pm

बहुत सुन्दर ... सादर बधाई स्वीकारें आदरणीय बृजेश जी 

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 27, 2014 at 12:19pm

आदरणीय बृजेश भाई एक भावपूर्ण , यथार्थपरक एवं गरिमामय रचना के लिए हार्दिक बधाई .

Comment by Shyam Narain Verma on January 27, 2014 at 12:08pm
बहुत उम्दा ... बहुत बहुत बधाई..

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