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यह मोरपंखी मन !
न जाने क्यूँ प्रिये पागल –
हुआ जाता तुम्हारी याद मे यह मोरपंखी मन !
पहाड़ों पर कभी भटके
ढलानों पर कभी घूमे
कभी यह चीड़ के वन से –
घटाओं को बढ़े चूमे ।
यहाँ ठंडी हवाओं मे बढा जाता बहुत सिहरन
न जाने क्यूँ प्रिये पागल अरे यह मोरपंखी मन !
नदी , निर्झर , पहाड़ों पर
भ्रमण करता हुआ जाता
फिज़ाओं मे भटकना अब प्रिये !
पलभर नहीं भाता ।
तुम्हारे बिन हुआ जाता बड़ा सूना मेरा उपवन -
न जाने क्यूँ प्रिये ! पागल अरे यह मोरपंखी मन !
--- मौलिक एवं अप्रकाशित -

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Comment by S. C. Brahmachari on December 25, 2013 at 6:44pm

भाई गिरिराज भण्डारी जी,

एक भूवैज्ञानिक के अंतर्मन से निकली भावनाएं कविता बन गयी। प्रशंसा के लिए धन्यवाद !

Comment by S. C. Brahmachari on December 25, 2013 at 6:34pm

भाई अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव जी

हार्दिक आभार !

Comment by S. C. Brahmachari on December 25, 2013 at 6:22pm
डॉ गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी,
रचना आपकों अच्छी लगी, आभारी हूं !
Comment by S. C. Brahmachari on December 25, 2013 at 6:09pm
बहन उपासना जी ,
रचना की प्रशंसा के लिए धन्यवाद 1
Comment by S. C. Brahmachari on December 25, 2013 at 6:05pm
आ0 कुंती भाभी जी,
रचना मनभावन लगी । आभार व्यक्त करता हूँ !

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on December 25, 2013 at 4:36pm

आदरणीय , विरह की तड़्प को सुन्दर बयाँ किया है आपने , बहुत बधाई आपको ॥

Comment by अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव on December 25, 2013 at 12:08pm

हार्दिक बधाई आ. ब्रह्मचारी जी सुंदर गीत  के लिए । गीत में प्रवाह भी है। 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 25, 2013 at 11:59am

ब्रह्मचारी जी

अति भावपूर्ण , सुन्दर कविता हेतु बधाई i

Comment by upasna siag on December 24, 2013 at 10:38pm

बहुत सुन्दर रचना। 

Comment by coontee mukerji on December 24, 2013 at 10:18pm

बहुत सुंदर मनभावन रचना

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