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ग़ज़ल -निलेश 'नूर'- रहा देर तक भटकता

२२१ २/१२२ /२२१ २/१२२
.
मेरा जह्न बुन रहा है, हर रब्त रब्त जाले,
पढता ग़ज़ल मै कैसे, लगे हर्फ़ मुझ को काले.
...

मेरी धडकनों का मक़सद मेरी जिंदगी नहीं है,
के ये जिंदगी भी कर दी किसी और के हवाले. 
...

मेरी नाव डूबती है, तेरे साहिलों पे अक्सर,
मुझे काश इस भँवर से तेरी आँधियाँ निकाले.  
...

अगर आ सके, अभी आ, तुझे वास्ता ख़ुदा का,
मेरा दम निकल रहा है, मुझे गोद में समा ले.
...

रहा देर तक भटकता किसी छाँव के लिए वो,
बिस्मिल हुआ है सूरज, हुए जिस्म पे है छाले.   
...

चलो ‘नूर’ जिंदगी में, ये रहा उधार मुझ पर,
मेरी शाइरी तुम्ही से, सभी रंग तुमने डाले. 
.........................................................
मौलिक व अप्रकाशित 
निलेश 'नूर'

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Comment

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Comment by annapurna bajpai on November 19, 2013 at 6:48pm

चलो ‘नूर’ जिंदगी में, ये रहा उधार मुझ पर, 
मेरी शाइरी तुम्ही से, सभी रंग तुमने डाले............................... ये शेर अत्यधिक लाजवाब है , पूरी गजल ही बहुत बेहतरीन हुई है  । बहुत खूबसूरत , बधाई आपको आदरणीय नीलेश जी । 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 19, 2013 at 6:42pm

शब्दातीत

नूर भाई  मै तो आपका कायल हो चूका हूँ  i

आपको कोहेनूर कह चुका हूँ  i तो आप है  i इसमें  कोई शक नहीं i  

किस किस कि दाद  दू  i  हर राब्त रब्त जाले , लगे हर्फ़ मुझको काले  i  सभी रंग तुमने डाले i

ला -------------जवाब   

Comment by Dr Ashutosh Mishra on November 19, 2013 at 6:16pm

आदरणीय नूर जी हर शेर शानदार ..ढेर सारी बधाई के साथ 

Comment by Saarthi Baidyanath on November 19, 2013 at 5:09pm

लाजवाब शेर ..

अगर आ सके, अभी आ, तुझे वास्ता ख़ुदा का,
मेरा दम निकल रहा है, मुझे गोद में समा ले....उम्दा :)

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