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चिंगारियाँ

 

बूंद-बूंद टपकती

घबराती  बेचैनी,

बेचैन ख़यालों के भीतरी अहाते --

जहाँ कहीं से आती थी याद तुम्हारी

बंद कर दिए थे उन कमरों के दरवाज़े,

पर समय की धारा-गति कुछ ऐसी

दरवाज़े यह समाप्त नहीं होते,

गहरे में उतर-उतर आती है अकुलाहट

कई दरवाज़ों के पीछे से आती है जब

सुनसान आवाज़, तुम्हारी करुण पुकार,

तुम थी नहीं वहाँ, हाँ मैं था

और था मेरा कांपता आसमान

टूटते तारे-सा गिरने का जिसका भान

हुआ था तुमको, मुझको भी, उस शाम।

 

थी घबराई कोई शून्याकृति कहीं --

या थीं वह तुम्हारी बेचैन आँखें

इस कमरे में उस कमरे में विस्मित-सी,

और मैं इन कमरों को बंद कर न सका।

बुझती रातों में इन खुले हुए दरवाज़ों से,

तिमिर-पथों से आती शिशु-रुदन-सी

सिसकियाँ

दुख की कथाएँ

घूमती हैं हज़ारों चिनगारियों-सी

अब तुम्हारे अभाव का ताप बनी।

चुभती जलती चिनगारियों से घायल

मेरी रातें सतहों की परतों में ढूँढती हैं

तुम्हारी जायज़ शिकायतें

तुम्हारे दुखों के दाग।

-------  

-- विजय निकोर

  (मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by vijay nikore on September 10, 2013 at 8:06pm

आदरणीया अन्नपूर्णा जी:

आपने रचना की सराहना की, मेरा मनोबल बढ़ा। धन्यवाद।

सादर,

विजय निकोर

Comment by Vindu Babu on September 9, 2013 at 6:03pm
आदरणीय सर जी नमस्ते!
आपकी छन्दमुक्त रचना में पिरोई प्रबल भावनाओं की लड़ी चित्ताकर्षक है।
आपको बहुत बधाई इस सफल सम्प्रेषणीय रचना के लिए।
सादर
Comment by vijay nikore on September 7, 2013 at 8:47pm

आदरणीय श्याम नारायण जी:

 

आपने इस रचना को सराहा ही नहीं, इसे "likes" में संजो के रखा, आपका हार्दिक आभार।

 

सादर,

विजय निकोर

Comment by vijay nikore on September 7, 2013 at 8:40pm

आदरणीय गिरिराज जी, रचना की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार।

 

सादर,

विजय निकोर

Comment by अरुन 'अनन्त' on September 6, 2013 at 1:48pm

वाह अत्यंत सुन्दर पंक्तियाँ आदरणीय आनंद आ गया ढेरों बधाई आपको

Comment by Meena Pathak on September 5, 2013 at 11:42pm

अब तुम्हारे अभाव का ताप बनी।

चुभती जलती चिनगारियों से घायल

मेरी रातें सतहों की परतों में ढूँढती हैं

तुम्हारी जायज़ शिकायतें

तुम्हारे दुखों के दाग।...................सुन्दर रचना हेतु बधाई स्वीकारें परम आदरणीय

Comment by Priyanka singh on September 5, 2013 at 10:57pm

मेरी रातें सतहों की परतों में ढूँढती हैं

तुम्हारी जायज़ शिकायतें

तुम्हारे दुखों के दाग।

   एहसासों से भरी एक सुन्दर रचना ....बधाई सर ....

Comment by बृजेश नीरज on September 5, 2013 at 8:31pm

बहुत सुन्दर! आपको हार्दिक बधाई!

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on September 5, 2013 at 8:21pm

आ0 निकोर सर जी,   सादर प्रणाम!    वाह!  बहुत सुन्दर प्रस्तुति।   आपको बहुत बहुत शुभकामनाओं  सहित हार्दिक बधाई।   सादर,

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on September 5, 2013 at 8:20pm

सुंदर भावनाओं से ओतप्रोत रचना पर, बहुत बहुत बधाई आदरणीय विजय जी

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