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ग़ज़ल : कोई चले न जोर तो जूता निकालिये

बह्र : मफऊलु फायलातु मफाईलु फायलुन (221 2121 1221 212)

---------

चंदा स्वयं हो चोर तो जूता निकालिये

सूरज करे न भोर तो जूता निकालिये

 

वेतन है ठीक  साब का भत्ते भी ठीक हैं

फिर भी हों घूसखोर तो जूता निकालिये

 

देने में ढील कोई बुराई नहीं मगर

कर काटती हो डोर तो जूता निकालिये 

 

जिनको चुना है आपने करने के लिए काम

करते हों सिर्फ़ शोर तो जूता निकालिये

 

हड़ताल, शांतिपूर्ण प्रदर्शन, जूलूस तक

कोई चले न जोर तो जूता निकालिये

---------

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on August 25, 2013 at 9:03pm

बहुत बहुत धन्यवाद  अरुन शर्मा 'अनन्त' जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on August 25, 2013 at 8:50pm

तह-ए-दिल से शुक्रगुज़ार हूँ  Dr Ashutosh Mishra जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on August 25, 2013 at 8:49pm

बहुत बहुत शुक्रिया  Ramesh kumar chauhan जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on August 25, 2013 at 8:48pm

बहुत बहुत धन्यवाद  Ramesh kumar chauhan जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on August 25, 2013 at 8:48pm

बहुत बहुत धन्यवाद mrs manjari pandey जी

Comment by mrs manjari pandey on August 25, 2013 at 2:43pm

       आदरणीय धर्मेन्द्र जी, लगता है वर्तमान समस्याओं से निपटने का एक मूल मन्त्र आपने पा लिया है. बढिया. आनन्ददायक .

Comment by रमेश कुमार चौहान on August 25, 2013 at 11:35am

यथार्थ पर शब्दों का प्रयोग लुभावना लगा सादर बधाई ।

Comment by Dr Ashutosh Mishra on August 25, 2013 at 9:04am

आदरनीय धर्मेन्द्र जी ..इस जूते निकालने का भी जवाब नएहीं ..वर्तमान परिदृश्य में आपकी ये रचना समस्या निदान का मूल मंत्र हो सकती है ..सादर बधाई के साथ 

Comment by अरुन 'अनन्त' on August 24, 2013 at 1:07pm

वाह धारदार ग़ज़ल आदरणीय क्या कहने यह तेवर अपनाना ही पड़ेगा तभी जाकर कुछ काम बनेगा दिल से बधाई स्वीकारें इस शानदार ग़ज़ल पर.

Comment by ram shiromani pathak on August 23, 2013 at 9:59pm

वेतन है ठीक  साब का भत्ते भी ठीक हैं

फिर भी हों घूसखोर तो जूता निकालिये///

वाह क्या कहने आदरणीय बधाई स्वीकारें.

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