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बस पांच मिनट का पड़ाव  

उस स्टेशन पर 
देख रही हूँ उस पार किस तरह 
वो  उस हथौड़े को 
अपने सर के ऊपर तक ले जाकर 
खटाक से वार कर रहा है
 उस लोहे पर जिसको 
चूड़ियों से भरे दो हाथ 
थाम रहे हैं दोनों और से 
कितना आत्म विशवास है 
उन दोनों को अपने उन हाथों पर 
लोहा इच्छित आकार 
लेता जा रहा है धीरे-धीरे
सोच रही हूँ क्या कोई फर्क है 
इस लोहे और उन दो इंसानों में 
निर्धनता के हथौड़े ने 
इनके जिस्म ,व् मस्तिष्क 
को भी तो ढाल दिया है एक सांचे में  
तभी तो हर वार इतना अचूक 
गति में कंही कोई त्रुटी  नहीं 
व्यवधान नहीं 
एक मशीनी कल पुर्जों की  तरह 
दुनिया से बेखबर अपने उद्यम में 
संलग्न हैं वे दोनों 
मशीनी मानव !!
*************************** 

 

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Comment

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on May 7, 2013 at 8:30pm

प्रिय सखी शशि दिल से आभार आपका |


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on May 7, 2013 at 8:29pm

आदरणीय सौरभ जी रचना पर आपकी प्रतिक्रिया लेखनी में ऊर्जा प्रवाहित करती है आपको रचना पसंद आई मेरा लिखना सार्थक हुआ हार्दिक आभार आपका |

Comment by Usha Taneja on May 7, 2013 at 6:26pm

आदरणीय  rajesh kumar जी,बहुत बढ़िया प्रस्तुति... के लिए बधाई. 

यह सत्य ही है कि इंसान की शक्ति और सोच से ही मशीनों का प्रादुर्भाव हुआ. हथोड़ा भी एक मशीन है. जब तक इंसान मशीन को चलाता रहे तब तक ठीक है, मगर उल्टा कभी ना हो... 

Comment by coontee mukerji on May 7, 2013 at 5:35pm

जीवन का  एक कड़वा पहलू , क्या करे इंसान , ये मशीनी मानव उनका सत्य उन्हीं के साथ जीवंत है , लेकिन  शिकायत का कोई शब्द नहीं

सादर  / कुंती .

Comment by shashi purwar on May 7, 2013 at 3:50pm

bahut sundar rchna rajesh kumari ji ardik badhai aapko


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on May 7, 2013 at 2:43pm

पेट की आग को हुनर की झींसियाँ किस तरीके बाँधती हैं को आपने अपनी रचना में सुन्दरता और पूरी गंभीरता से स्थान दिया है, आदरणीया राजेशकुमारीजी.

बहुत-बहुत बधाई इस सुगढ़ रचना के लिए जो वैचारिकतः संतुष्ट करती है.

सादर


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on May 7, 2013 at 1:24pm

आपको रचना पसंद आई हार्दिक आभार बसंत नेमा जी 

Comment by बसंत नेमा on May 7, 2013 at 12:14pm

बहुत सुन्दर  हकीकत को बँया करती एक सुन्दर  रचना .... बधाई ...

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