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मन निर्मल निर्झर, शीतल जलधर, लहर लहर बन, झूमे रे..

मन बनकर रसधर, पंख  प्रखर  धर, विस्तृत अम्बर, चूमे रे..

ये मन सतरंगी, रंग बिरंगी, तितली जैसे, इठलाये..

जब प्रियतम आकर, हृदय द्वार पर, दस्तक देता, मुस्काये.. 

डॉ. प्राची.

मौलिक , अप्रकाशित.

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on February 4, 2013 at 8:50pm

रचना को पसंद कर अनुमोदित के लिए आभार आदरणीया मीना पाठक जी 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on February 4, 2013 at 8:45pm

आदरणीय सौरभ जी, सादर प्रणाम !

त्रिभंगी छंद पर रचना लिखना सच में मुश्किल है, चार दिन से कोशिश में थी,  बार बार लिख रही थी काट रही थी, शिल्प भाव कथ्य सब एक साथ त्रिभंगी छंद में सिमट ही नहीं रहे थे, आखिरकार इस रचना के कथ्य व भाव संतृप्ति पर आपका अनुमोदन मिलना बहुत संतुष्टि प्रदान कर रहा है, जिस हेतु आपकी ह्रदय से आभारी हूँ. सादर.

क्या वाष्प की जगह प्रखर शब्द प्रयुक्त करना उचित होगा..? राय दें ! सादर.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on February 4, 2013 at 7:51pm

छंद का बहुत ही अच्छा प्रयास हुआ है, डॉ.प्राची. बहुत-बहुत बधाई. कथ्य की दृष्टि से भी रचना गहरी है. आपका हार्दिक धन्यवाद कि आपने इतनी सुन्दर रचना से भाव-तृप्त किया.

वाष्प पंख  को देख लें, आदरणीया. उच्चारण-भंग का दोष बन रहा है.

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on February 4, 2013 at 5:18pm

आपने अपने निर्मल निर्झर मन की स्वच्छंद सुखद अनुभूतियों को बहुत मधुर स्वर में अभिव्यक्त किया है, डॉ प्राची बहनजी। मन को छूती इस मधुर स्वर अभिव्यक्ति के लिए हार्दिक बधाई 

 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on February 4, 2013 at 5:05pm

मन बनकर रसधर, वाष्प पंख धर, विस्तृत अम्बर, चूमे रे..वाह वाह वाह इस पंक्ति हेतु प्रिय प्राची मन झूम उठा बहुत बहुत बधाई इस छंद पर  

Comment by Meena Pathak on February 4, 2013 at 1:23pm

बहुत सुन्दर .. बधाई 

कृपया ध्यान दे...

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