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सूरज ने फक्कड़ से कहा:
"मुझे झुक कर सलाम कर !"
"तुझे सलाम करूं ? मगर क्यों?"
"ये दुनिया का दस्तूर है, चढ़ते सूरज को सभी सलाम करते हैं !"
"करते होंगे, मगर मैं तेरे आगे सिर नहीं झुकऊँगा !"
"मगर क्यों ?"
"क्योंकि तू बहुत कमज़ोर और निर्बल है, जिस दिन सबल हो जाएगा मैं तेरे आगे सर ज़रूर झुकाऊंगा !"
"कमज़ोर और निर्बल ? और वो भी मैं ?"
"हाँ !"
"तो अगर मैं ये साबित कर दूं कि मैं सबल हूँ, तो क्या तुम मुझे सलाम करोगे?"
"एक बार नही सौ सौ बार सिर झुकाकर सलाम करूँगा !"
"तो फिर जल्दी से बतायो कि तुम्हें यकीन दिलवाने के लिए मुझे क्या करना होगा ?
फक्कड़ ने मुस्कुराते हुए कहा:
"एक बार, सिर्फ एक बार रात में उदय होकर दिखा दो !"

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Comment by chetan prakash on October 31, 2010 at 1:45am
योगराज भाई,
आपकी लघु -कथा पढ़ी. बहुत ही सार-गर्भित इस रचना को पढ़ कर आह्लाद हो आया, सोचा जरूर कुछ कहूँ. फक्कड़, आप बेहतर जानते हैं , सब- कुछ खोने को सदैव तत्पर और ज़मीर का सच्चा इंसान होता है. और, ऐसे ही इंसान से मानवता ने हमेशा से प्रेरणा ग्रहण की है. साधू वाद स्वीकार करें.

प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on October 30, 2010 at 9:42am
शमशाद भाई, ये लघुकथा मेरे भी दिल के बहुत करीब है ! मुझे धुंधला धुंधला सा याद था कि बहुत साल पहले मैंने सूरज को ललकारने वाली एक रचना लिखी थी, मगर याद नहीं आ रहा था कि वो कोई ग़ज़ल थी या कविता! पुरानी फाईल मिली तो याद आया कि एक साहित्यक गोष्ठी में बैठे बैठे ये लघुकथा तब लिखी थी जब एक पंजाबी शायर "सूरज" के कसीदे पढ़ता हुआ थक नहीं रहा था ! शायद तब जिंदगी और कैरियर के लिए संघर्षरत २४-२५ साल के नौजवान लेखक की जेहनी फ्रस्ट्रेशन (या खुशफ़हमी) से इस लघुकथा ने जन्म लिया था ! आपकी हौसला अफजाई का दिल से ममनून हूँ !

प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on October 30, 2010 at 9:32am
आदरणीय आचार्य सलिल जी - "मेरा मुझ में कुछ नहीं, जो कुछ है सो तेरा !" आप सब वरिष्ठों को देख पढ़ कर ही सीख रहा हूँ, आशीर्वाद बनाए रखें !

प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on October 30, 2010 at 9:29am
प्रिय रश्मि निषाद जी एवं बीरेंद्र जैन जी - लघुकथा पसंद करने के लिए धन्यवाद !

प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on October 30, 2010 at 9:27am
भाई गणेश बागी जी - दरअसल मैं भी आपके "बगावती" अंदाज़ को देख कर कभी कभी डर जाता हूँ ! ओपनबुक्स के सर्वेसर्वा के आदेश का उल्लंघन करने का साहस हो सकता है मुझ में क्या ? खैर, गजल भी बहुत जल्द आपकी नज़र की जाएगी !

भाई नवीन जी - ग़ज़ल छोड़ने का तो सवाल ही नहीं है ! कुछ गीत, खुली नज्में, रुबाइयाँ और हाइकू भी मिले हैं पुराने कागजों में जो कि पंजाबी में लिखे हुए हैं ! मौका मिलते रूपांतरित करके साथियों के सामने प्रस्तुत करूँगा !
Comment by sanjiv verma 'salil' on October 30, 2010 at 1:00am
लघुकथा कहने में आप का सानी नहीं. गागर में सागर भर देना ही तो लघुकथा कहना है. बधाई .
Comment by Veerendra Jain on October 29, 2010 at 11:40pm
Yograj ji ... behtareen sanwaad....bahut bahut badhai...
Comment by rashmi nishad on October 29, 2010 at 11:29pm
ha hahahahha ...........waah bahoot maza aaya.........
Comment by Shamshad Elahee Ansari "Shams" on October 29, 2010 at 7:09pm
अद्भुत कथा, सृष्टि के शाश्वत नियमों को ही धता बनाती है यह कथा..यानि जो अपने नियम खुद न बना सके उससे ज्यादा निर्बल भला और कौन?? अजीब सी कैफ़ियत पैदा कर देती है यह कहानी...२२-२३ साल पहले किन हालातों में इस कहानी का सृजन हुआ? वो मनोदशा क्या थी? वो कौन से सवाल थे कि फ़क्कड इतना बलवान था...उत्सुकताओं के पहाडो़ं को जन्म देती है और यही इसकी विशिष्टता है, यही खूबसूरती और यही राज़ है इसकी सफ़लता का...पुरानी डायरी में और क्या क्या खज़ाने छिपे हैं, जानना शेष है..सादर

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on October 29, 2010 at 6:23pm
आदरणीय योगराज प्रभाकर जी, कृपया मेरी टिप्पणी का गलत अर्थ ना ले, आप ग़ज़ल भी बेहतरीन कहते है, और कुछ दिनों से आपकी ग़ज़ल OBO पर नहीं आयी है, हम सब इन्तजार कर रहे है,

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