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थम गया है वक़्त ..
जम गए हैं कदम ..
पसरा है सनसनाता सन्नाटा ..
अपना घर आँगन 
जो महकता था 
फूलों की बगिया सा,
गुलमोहर के पेड़ से 
झड़ते थे जहाँ आशीषों के फूल ..
अब है वीरान  खंडहर सा..
नहीं लौट रहे
स्नानकर, वापिस
अपने वीराने आशियाने की ओर
भारी कदम..
आँखों की बदरी में
पिघल रहे हैं गुज़रे लम्हें ,
जो दुआओं से रौशन थे
अब अन्धकार में डूबे हैं..
डबडबाई आँखें  
और भीगा मन
नहीं है इंतज़ार,
सिर्फ पसरा है
सूनापन..
उड़ गए हैं धुंआ बन 
उनकी रूह और जिस्म के साथ
हमारे अनगिन ख्वाब..
खोखला हो गया
अस्तित्व जैसे,
ज्वालामुखी फटे से
सूना हो जाए
गिरि का सीना
हमेशा के लिए...
 
 

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प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on June 4, 2012 at 4:36pm

यादों में बसा दर्द बखूबी कविता से ज़ाहिर हो रहा है, इस सुन्दर अभिव्यक्ति पर मेरी बधाई स्वीकार करें डॉ प्राची जी

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on June 4, 2012 at 3:49pm

आदरणीय प्राची जी , सादर 

आपका ये अर्पण जीत लिया मेरा मन

कुछ अश्क कुछ सुमन मेरा भी उन्हें सादर नमन

पिघल रहे हैं गुज़रे लम्हें ,

जो दुआओं से रौशन थे

बह चले न जाने कहाँ

उजड गया ये चमन

बहुत खूब , बधाई  


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on June 4, 2012 at 2:23pm

Dedicated to loving memories of my Father-in-Law and Mother-in-Law.

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