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मैं हूँ स्वछन्द ,नीर की बदरी, जहां चाहे बरस जाऊँगी 
मैं कोई धागा तो नहीं, जो सुई के पीछे आऊँगी | 
मैं  हूँ मस्त पवन कि खुशबू, जहां चाहे बिखर जाऊँगी 
मैं कोई काजल तो नहीं, जो पलकों में सिमट जाऊँगी | 
मैं  हूँ उन्मुक्त सशक्त पतंग, उच्च गगन लहराऊँगी 
मैं कोई मैना तो नहीं, जो पिंजरे बीच कैद हो जाऊँगी | 
मैं  हूँ पाषाण हिय कि नारी, अपनी क्षमता दिखलाऊंगी 
मैं कोई शुष्क लकड़ी तो नहीं, जो आरी से कट जाऊँगी | 
मैं  हूँ आज की शिक्षित नारी, कभी न  शीश झुकाउँगी 
नारी अबला होती है यह, प्रचलित कथन मिटाऊँगी |

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Comment by rajesh kumari on April 26, 2012 at 2:29pm
 बहुत बहुत आभारी हूँ प्रदीप कुशवाह जी 
Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on April 26, 2012 at 2:22pm

आदरणीय  राजेश कुमारी जी, सादर अभिवादन ,  एक एक लाइन dradh ichha shakti को प्रदर्शित करती हुई. सहमत. बधाई 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on April 26, 2012 at 11:40am

बहुत बहुत हार्दिक आभार प्राची जी  रचना के भावों की सराहना हेतु 

कृपया ध्यान दे...

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