फूटा ठीकरा
शेख बच निकला
तू था मुहरा
ढूंढ़ बकरा
शनैः रेत लो गला
दे चारा हरा
बेजुबाँ खरा
हक माँगने लगा
तो दोष भरा
अना दोहरी
नश्तर सी चुभन
दगा अखरी!
यहाँ खतरा
ईश्वर हुआ अंधा
इन्सां बहरा
यार बिसरा
अब यहाँ क्या धरा
चलो जियरा
छटा कुहरा
छद्म बंधन मुक्त
पिया मदिरा
समा ठहरा
इंद्रधनुषी दुनिया
नशा गहरा
नेत्र बदरा
लगा झरझराने
रक्त बिखरा
नशा उतरा
आई घर की याद
बुझा चेहरा
Comment
वाहिद जी, नमस्कार, आपको ये हाइकू पसंद आए,बहुत आभार.
माननीय योगी जी, आपके कहे अनुसार फ़ॉन्ट का कलर और साइज़ ठीक कर दिया है. बहुत ही अच्छी सलाह के लिए धन्यवाद.
बात यह है की मई इस पर टाइप करने का अभ्यस्त नही हूँ, और हर बार "bade ai" की मात्रा नही लग रही है, देखिए "mai" का बार बार मई हो जा रहा है. इसलिए ही सवैया नही कह पाया था. घानाक्षरी भी ऐसे ही बिगड़ गई थी. क्षमा प्रार्थी हूँ.
लाजवाब हाइकू राकेश जी| बधाई|
भाई राकेश त्रिपाठी जी, यदि इस हाइकू को यूं कहा जाये तो कैसा रहेगा?
आना दोहरी
नश्तर सी चुभन
दगा अखरी
सुंदर रचना बधाई स्वीकार करें
अना दोहरा
नश्तर सा चुभता
दगा अखरा!
snehi rakesh ji, prasann rahen.
ana dohra .. kise kahte hain..?
sundar bhav (ghav), good prastuti.
badhai.
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