बह्र : २१२ २१२ २१२ २१२
था हरा औ’ भरा साँवला कोयला
हाँ कभी पेड़ था, साँवला कोयला
वक्त से जंग लड़ता रहा रात दिन
इसलिए हो गया साँवला, कोयला
चन्द हीरे चमकते रहें इसलिये
जिन्दगी भर जला साँवला कोयला
खा के ठंडी हवा जेठ भर हम जिये
जल के विद्युत बना साँवला कोयला
हाथ सेंका किये हम सभी ठंड भर
और जलता रहा साँवला कोयला
चंद वर्षों में ये ख़त्म होने को है
ऐसे लूटा गया साँवला कोयला
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(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय आशुतोष जी, इस स्नेह का मैं हक़दार हूँ या नहीं ये तो पता नहीं पर इसके लिए तह-ए-दिल से आपका शुक्रगुज़ार हूँ।
आदरणीय भाई धर्मेन्द्र जी इस ग़ज़ल से आपने जहाँ एक और अद्भुत सन्देश दिया है वही इस ग़ज़ल में आपकी सोच सीधे दिल में जगह बनाती है ..आपकी तारीफ़ के लिए मैं शब्दहीन हूँ .कमाल की इस रचना पर ढेर सारी शुभकामनायें स्वीकार करें सादर बधाई के साथ
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय गिरिराज भंडारी जी
तह-ए-दिल से शुक्रगुज़ार हूँ आदरणीय सूर्या बाली साहब
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय सुशील सरना जी
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय हर्ष महाजन जी
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय सुरेश कुमार जी
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय महेन्द्र कुमार जी
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय श्याम नारायण जी
आदरणीय धर्मेंद्र भाई , लाजवाब रदीफ और लाजवाब जज़ल के लिये हार्दिक बधाइयाँ ।
वक्त से जंग लड़ता रहा रात दिन
इसलिए हो गया साँवला, कोयला -- इस हासिले गज़ल शेर के लिये बहुत बधाई ।
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