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(१)

 

जिनमें प्रेम करने की क्षमता नहीं होती

वो नफ़रत करते हैं

बेइंतेहाँ नफ़रत

 

जिनमें प्रेम करने की बेइंतेहाँ क्षमता होती है

उनके पास नफ़रत करने का समय नहीं होता

 

जिनमें प्रेम करने की क्षमता नहीं होती

वो अपने पूर्वजों के आखिरी वंशज होते हैं

 

(२)

 

तुम्हारी आँखों के कब्जों ने

मेरे मन के दरवाजे को

तुम्हारे प्यार की चौखट से जोड़ दिया है

 

इस तरह हमने जाति और धर्म की दीवार के

आर पार जाने का रास्ता बना लिया है

 

हमारे जिस्म इस दरवाजे के दो ताले हैं

हम दोनों के होंठ इन तालों की दो जोड़ी चाबियाँ

इस तरह दोनों तालों की एक एक चाबी हम दोनों के पास है

 

जब जब दरवाजा खुलता है

दीवाल घड़ी बन्द पड़ जाती है

 

(३)

 

मैं तुम्हारी आँख से निकला हुआ आँसू हूँ

मुझे गिरने मत देना

अपनी उँगली की कोर पर लेकर

अपने होंठों से लगा लेना

 

मैं तुम्हारे जीवन में नमक की कमी नहीं होने दूँगा

 

(४)

मैं तुम्हारी आँख में ठहरा हुआ आँसू हूँ

मुझे बाहर मत निकलने देना

मैं तुम्हारे दिल को सूखने नहीं दूँगा

 

प्रेम की फ़सल खारे पानी में ही उगती है

 

(५)

हँसते समय तुम्हारे गालों में बनने वाला गड्ढा

बिन पानी का समंदर है

जो न तो मुझे डूबोता है

न तैरकर बाहर निकलने देता है

-----------

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 8, 2016 at 11:52pm

आदरणीय सौरभ जी, रचना पर विस्तृत प्रतिक्रिया के लिए तह-ए-दिल से आभारी हूँ। आपने ठीक कहा उँगली की पोर ही होती है कोर गलत है। त्रुटि की तरफ ध्यान दिलाने के लिए धन्यवाद।

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 8, 2016 at 11:48pm

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय भ्रमर जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 8, 2016 at 11:48pm

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय विजय निकोर जी


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on April 8, 2016 at 8:06pm

पाँच आयाम, पाँच भावोद्गार ! वाह वाह !!

वो अपने पूर्वजों के आखिरी वंशज होते हैं - ऐसा एक प्रेमी सहज ही कह सकता है. बधाई !

जब जब दरवाजा खुलता है

दीवाल घड़ी बन्द पड़ जाती है  -  यही आश्वस्ति देही के विदेही होने की सूरत है, आदरणीय. विदेही भाव की उन्मुक्त दशा, काश, दीर्घकालिक हो. 

इन लघु-कविताओं के लिए हार्दिक बधाइयाँ आदरणीय धर्मेन्द्र जी. 

बिना पानी के समन्दर में क्या डूबना और क्या तैरना ? यह सोच ही, कि ’कुछ’ बिना पानी का समन्दर है, पैदल-पैदल चलने की दशा भावी कर देती है. पाँचवा भावोद्गार कमनीयता और भावनाओं के हिसाब से प्रभावी तो है, किन्तु, तार्किकता और गठन की माँग करती है. 

और भाईजी, उँगली की कोर से नये-नये परिचित हुए हम, वर्ना उसकी ’पोर’ से ही परिचित थे अबतक ! ’कोर’ तो आँख की हुआ करती है न ? 

शुभ-शुभ

Comment by SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR on April 6, 2016 at 3:24pm

हँसते समय तुम्हारे गालों में बनने वाला गड्ढा

बिन पानी का समंदर है

जो न तो मुझे डूबोता है

न तैरकर बाहर निकलने देता है

कविताएँ पढ़ कर आनन्द आ गया.............सुंदर

Comment by vijay nikore on April 6, 2016 at 1:04pm

 आपकी कविताएँ पढ़ कर आनन्द आ गया। बधाई।

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 5, 2016 at 6:37pm

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय लडीवाला जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 5, 2016 at 6:36pm

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय गोपाल नारायण जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 5, 2016 at 6:36pm

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीया राजेश कुमारी जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 5, 2016 at 6:35pm

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय आशुतोष मिश्र जी

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