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कवीन्द्र रवींद्रनाथ ठाकुर की एक रचना का भावानुवाद: ---संजीव 'सलिल'

कवीन्द्र रवींद्रनाथ ठाकुर की एक रचना का भावानुवाद:
संजीव 'सलिल'
*
*
रुद्ध अगर पाओ कभी, प्रभु! तोड़ो हृद -द्वार.
कभी लौटना तुम नहीं, विनय करो स्वीकार..
*
मन-वीणा-झंकार में, अगर न हो तव नाम.
कभी लौटना हरि! नहीं, लेना वीणा थाम..
*
सुन न सकूँ आवाज़ तव, गर मैं निद्रा-ग्रस्त.
कभी लौटना प्रभु! नहीं, रहे शीश पर हस्त..
*
हृद-आसन पर गर मिले, अन्य कभी आसीन.
कभी लौटना प्रिय! नहीं, करना निज-आधीन..

Acharya Sanjiv Salil

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Comment by sanjiv verma 'salil' on June 16, 2010 at 11:59pm
aapke sahridayata hetu aabharee hoon.
Comment by Admin on June 16, 2010 at 8:27am
आचार्य जी , हम लोग भाग्यशाली है कि आप कि संगति मिली है, जिसके कारण कवीन्द्र रवींद्रनाथ ठाकुर कि रचना का भावानुवाद पढ़ पा रहे है, बहुत बहुत धन्यवाद है आपका,

प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on June 15, 2010 at 7:10pm
आचार्य जी बहुत ही उच्च स्तरीय भावानुवाद किया है गुरुदेव रविन्द्रनाथ टैगोर की कविता का, इसकी प्रशंसा के लिए शब्द नही हैं ! बिना नूल रचना कि आत्मा से छेड़ छाड़ किये इतना सुंदर भावानुवाद हर किसी के बूते कि बात नही -अत:मैं दिल से आपको धन्यवाद करता हूँ !

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on June 14, 2010 at 9:10am
सुन न सकूँ आवाज़ तव, गर मैं निद्रा-ग्रस्त.
कभी लौटना प्रभु! नहीं, रहे शीश पर हस्त..

आदरणीय आचार्य जी कवीन्द्र रवींद्रनाथ ठाकुर की रचना का भावानुवाद यहाँ पर पोस्ट कर आपने बहुत ही अच्छा कार्य किये है, इतनी सुंदर रचना के भाव को हम सब आप के माध्यम से समझ सके , बहुत बहुत आप का आभार है|

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