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ट्रेन यात्रा .एक अतुकान्त कविता-मनोज कुमार अहसास

अनारक्षित ट्रेन थी
खचाखच भरी थी
भरे थे लोग भूसे की तरह
सीटों पर
ऊपर सामान रखने की जगह पर
फर्श पर
लेकिन
मुझे तो जाना ही था ।
खड़ी बोली के सहारे
चार मित्रो और बलिष्ट भुजाओ की सहायता से
मैंने मार्ग बनाया ।

कितने लोग!
इतने लोग?
सब बहुत घुले मिले थे आपस में
क्या कर रहे हैं?
कहाँ जा रहे हैं?
काम से आ रहे हैं
काम पर जा रहे हैं
इतनी दूर से काम पर आ रहे है
अरे?

क्या ये साप्ताहिक गाड़ी है
नहीं
रोज चलती है
ऐसी ही दो गाड़िया हैं
रोज चलती हैं
ऎसे ही भरी रहती हैं

अंदर के हालात
टॉयलेट तक में भरे लोग
एक अलग जीवन शैली
खुद को बचाने की जददोजहद
बोतलों में भीगे चनो
सूखे चावल
और तम्बाकू के सहारे
सामान रखने की दो जगहों के बीच चादरे बंधी है
उन पर टंगे हुए है लोग
खिड़की में बंधा हुआ था गमछा
कहीं गिर न पड़े खिड़की पर खड़े हुए लोग
और
सहने की ज्यादा क्षमता वाले नोजवान
कुछ सीट के नीचे कुछ बाहर
तह होकर लेटे थे

खड़ा रहा मैं शांत
सफ़र नौ घंटे का था
मेरा स्टेशन आया
मैं उतर गया अपने चार साथियो के साथ

लेकिन उन लोगो में से कोई नहीं उतरा
उनका घर अभी दूर था
जहाँ जाकर उन्हें फिर आना था

रोज आते हैं हज़ारो
रोज जाते हैं

बहुत सालो से ऐसा ही हो रहा है


वो गाड़ी बिहार जाती है
~~~~~~~~~~~~~~~~


मौलिक और अप्रकाशित

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Comment

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Comment by मनोज अहसास on December 7, 2015 at 11:25pm
शुक्रिया
आदरणीय मिश्रा जी
सादर
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on December 7, 2015 at 8:34pm
खूब चित्रण हुआ है

कोटिशः बधाई

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