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सारा आलम, धुँआ - धुँआ हो जाये

 सारा आलम,

धुँआ - धुँआ हो जाये
इसके पहले
बचा लेना चाहता हूँ
थोड़ी से 'हवा'
पारदर्शी और स्वच्छ
जो बहुत ज़रूरी है
स्वांस लेने के लिए
ज़िंदा रहने के लिए

इसी तरह,
बचा लेना चाहता हूँ
नदियों और पोखरों में
थोड़ा ही सही,
पर स्वछ जल
थोड़ा सा आकाश (स्पेस)
थोड़ी सी आग (बगैर धुँआ)

मुकेश इलाहाबादी -----

(मौलिक और अप्रकाशित )

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Comment

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Comment by Abid ali mansoori on November 4, 2015 at 7:55pm

सारा आलम,

धुँआ - धुँआ हो जाये
इसके पहले
बचा लेना चाहता हूँ
थोड़ी से 'हवा'
पारदर्शी और स्वच्छ
जो बहुत ज़रूरी है
स्वांस लेने के लिए
ज़िंदा रहने के लिए

इसी तरह,
बचा लेना चाहता हूँ
नदियों और पोखरों में
थोड़ा ही सही,
पर स्वछ जल
थोड़ा सा आकाश (स्पेस)
थोड़ी सी आग (बगैर धुँआ)

सुन्दर रचना के लिए हर्दिक वधाई आपको!


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Comment by मिथिलेश वामनकर on November 4, 2015 at 7:33pm

आदरणीय मुकेश जी बहुत ही गहन वैचारिक प्रस्तुति हुई है. इस प्रस्तुति के लिए आपको हार्दिक बधाई.

निवेदन : संभवतः //थोड़ी से 'हवा'// में सी के स्थान पर से टाइप हो गया है. सादर 

Comment by Shyam Narain Verma on November 4, 2015 at 5:10pm

 सुन्दर अभिव्यक्ति पर हार्दिक बधाई।

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on November 4, 2015 at 3:58pm

गहरी सोच की भावपूर्ण कविता के लिए बधाई . आ0 मुकेश भाई जी

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