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ग़ज़ल: कोई पत्थर और कोई आईने ले के(भुवन निस्तेज)

कोई पत्थर और कोई आईने ले के
आ रहा हर एक अपने दायरे ले के

यूँ चले हो रात को दीपक बुझे ले के
खुद अँधेरा भी परेशाँ है इसे ले के

बस ठिठुरते रह गए दरवाजे बाहर ख्वाब
ये सुबह आई है कितने रतजगे ले के

जिंदगानी तंग गलियां भी न दे पाई
मौत हाजिर हो गई है हाइवे ले के

आपका आना तो कल ही सुर्ख़ियों में था
आज फिर अख़बार आया हादसे ले के

साकिया यूँ बेरुखी से मार मत हमको
रिन्द जायेगा कहाँ ये प्यास ले ले के

कुछ न कुछ देकर उन्हें खुश कर रहे थे लोग
हमने उनको खुश किया कुछ मशविरे ले के

गांव की पगडंडियों में खो गया हूँ मैं
माज़ी की यादों के मीठे ज़ायके ले के

लग रहे हैं पांव भी ये बोझ अब उनको
जो चले ही थे इरादे अनमने ले के

मौलिक व अप्रकाशित

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Comment

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Comment by भुवन निस्तेज on January 24, 2015 at 9:17am
आदरणीय डॉ आशुतोष साहब बेहद धन्यवाद....
Comment by भुवन निस्तेज on January 24, 2015 at 9:14am
आदरणीय लक्ष्मण धामी भाई बहुत बहुत आभार....
Comment by भुवन निस्तेज on January 24, 2015 at 9:13am
आदरणीय मुकेश श्रीवास्तव साहब धन्यवाद....
Comment by भुवन निस्तेज on January 24, 2015 at 9:11am
मेरे प्रयास को सराहने हेतु आभार आदरणीय मदन मोहन सक्सेना साहब....
Comment by भुवन निस्तेज on January 21, 2015 at 12:31pm
आदरणीय भाई गुमनाम पिथौरागढ़ी बहुत बहुत आभार....
Comment by Krishnasingh Pela on January 21, 2015 at 9:07am
पूरी ग़ज़ल उम्दा है ।
और मतला -
कोई पत्थर और कोई आईने ले के
आ रहा हर एक अपने दायरे ले के

मतला तो कहना ही क्या ! आ रहा हर एक अपने दायरे ले के । वाक़ई ! हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।
Comment by भुवन निस्तेज on January 21, 2015 at 8:42am
आदरणीय हरी प्रकाश साहब बेहद शुक्रिया, स्नेह बना रहे....
Comment by भुवन निस्तेज on January 21, 2015 at 8:40am
आदरणीय मिथिलेश वामनकर साहब, मेरे प्रयास को सराहने हेतु धन्यवाद...!
Comment by Dr Ashutosh Mishra on January 19, 2015 at 1:16pm

आदरणीय भुवन जी इस बेहतरी ग़ज़ल के लिए तहे दिल बधाई सादर 

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 19, 2015 at 12:09pm

यूँ न रातों को चलें दीपक बुझे ले के
खुद अँधेरा भी परेशाँ है इसे ले के.... क्या खूब कहा ....

बहुत  बहुत बधाई आ० भुवन भाई

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