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हरिगीतिका

क्षण मात्र भी बिन कर्म के कोई नहीं रहता कभी

सत्कर्म या दुष्कर्म में ही व्यस्त दीखते हैं सभी

तज स्वत्व व निज स्वार्थ को जो कर्म करते हैं सदा

सत्कर्म उनके ही उन्हें         सत्कार देते सर्वदा....१ 

जब कर्म करना ही पड़े तो क्यों न वह सत्कर्म हो

यदि भावना आदर्श हो तो कर्म भी सद्धर्म हों

अनुरोध है यह आपसे निज को कसौटी में कसें

व्यवहार हो यदि आत्मवत तो क्यों न हृदयों में बसें ...२

स्वच्छंद हैं हम कर्म को  जो चाहते हैं वो करें

पर पूर्व में ही कुछ विचारें और ईश्वर से डरें

ईश्वर-प्रदत्त विवेक को हम नित्य ही जाग्रत करें

वह जो कहे हम वो करें सद्धर्म का पालन करें.....३ 

दृष्टा रहें हम, चाहता वह नाट्य चाहे जो करें 

जो भूमिका हमको मिली है न्याय हम उससे करें

हो रहा है मात्र वह जो ईश को स्वीकार्य है

जो चल रहे विपरीत हैं उनकी सुनिश्चित हार है ....४

बाधित करें मत सृष्टिक्रम को घोर निन्दित कार्य यह

इसके दुसह परिणाम निश्चित, अशुभ और अनार्य यह 

शुभ तत्व से परिपूर्ण सबकुछ प्रकृति ज देती हमें

लालच बिना उपभोग से, सुख शांति मिलती है हमें ....५

डॉ. बृजेश

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Comment by Dr.Brijesh Kumar Tripathi on January 27, 2013 at 9:01pm

आदरणीय अशोक जी आपकी प्रतिक्रिया ने न सिर्फ मेरा मान बढाया है वरन मेरा मन भी बढाया है आपके शब्दों  का शत  शत आभार

Comment by Ashok Kumar Raktale on December 24, 2012 at 9:11pm

जब कर्म करना ही पड़े तो क्यों न वह सत्कर्म हो

यदि भावना आदर्श हो तो कर्म भी सद्धर्म हों

अनुरोध है यह आपसे निज को कसौटी में कसें

व्यवहार हो यदि आत्मवत तो क्यों न हृदयों में बसें ...........बहुत सुन्दर भाव.

बधाई स्वीकारें आदरणीय डॉ ब्रिजेश जी सादर.

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