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गज़ल - आंधियां चल दीं

आंधियां चल दीं आज़मानें सौ ,
गढ़ लिए हमने आशियानें सौ.

जिनकी हस्ती नहीं बसाने की ,
वो चले बस्तियां ढहानें सौ.

पुलिस के वास्ते बस एक थाना ,
माफिया के यहाँ ठिकानें सौ.

जीते जी तो हुआ न कोई एक,
अब मरा है चले नहानें सौ.

सफेदी ज़ुल्फ़ की यूँ ही तो नहीं ,
एक दिल यहाँ फसानें सौ.

लाख हैं बालियाँ चिडियाँ दस बीस,
खेत में बन गयीं मचानें सौ.

कटी उस ओर है खुशियों की पतंग,
लूटने चल दिए दीवानें सौ.

उनकी बातों में इन्कलाब नहीं,
नारे कहते हमें लगाने सौ.

उनकी मुस्कान नें किया आगाह,
ज़ख्म मुझको भी हैं छुपाने सौ.

मैं किसी तरह सो नहीं पाया,
ख्वाब आये मेरे सिरहाने सौ.

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Comment

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Comment by Abhinav Arun on December 23, 2012 at 11:53am

ये गज़ल आज के दैनिक जागरण वाराणसी  मे प्रकाशित हुई है -सादर सूचनार्थ -- 

http://in.jagran.yahoo.com/epaper/index.php?location=40&edition... 

Comment by Abhinav Arun on April 25, 2012 at 9:39am

शुक्रिया श्री आशीष जी और हाँ पूर्व में इसे पसंद कर टिप्पणी देने वाले श्री प्रीतम जी और श्री बागी भाई को भी हार्दिक आभार !!

Comment by आशीष यादव on April 25, 2012 at 9:20am
पहली बार नजर पड़ी इस रचना पर। अच्छी रचना है। तथ्य कथ्य खूबसूरत
Comment by PREETAM TIWARY(PREET) on October 25, 2010 at 12:33pm
आंधियां चल दीं आज़मानें सौ ,
गढ़ लिए हमने आशियानें सौ.

जिनकी हस्ती नहीं बसाने की ,
वो चले बस्तियां ढहानें सौ.

वाह अरुण भाई वाह....बहुत ही शानदार रचना है भाई.....सारे के सारे पंक्तियाँ पसंद आये....धन्यबाद इस रचना के लिए...
शुभकामनाये..

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on October 17, 2010 at 4:35pm
वाह वाह वाह भाई अरुण जी, बहुत ही बेहतरीन ग़ज़ल पढ़ी है आपने , सभी शे'र अच्छे लगे, बहुत ही उम्द्दा प्रस्तुति, बधाई आपको,

कृपया ध्यान दे...

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