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सिमटते दायरे

मजहब और कौम के दायरे में
हम सिमट गए;
इन्सान की इंसानियत से
हम भटक गए.
जो गलियां-ओ-कूँचे रौशन थे
गुल्जरों से;
वो  इन्सान की दरिंदगी  से
वीरान हो गए.
जो कहते थे;
बहिश्त जमीं पे लायेंगे,
वो गैरों के टुकड़ों पे
नीलाम हो गए.
जो फूल खिले थे;
बहारों के साए तले,
वो खिजां में मुरझा के
दम तोड़ गए.
जो ख्वाब पाले थे
मासूमों की आँखों में;
वो आज दरिंदों के पैरों तले
कुचल गए.
जो अरमान मचले थे
किन्ही नूरानी आँखों में;
वो मजहब की कातिल दीवारों में
चिन गए.
जिंदगी के ख्वाब और अरमान
जब दफ्न हो गए;
सोचा:
क्या करे जीकर कोई...?
पर
जब हम ढूंढने निकले
तो
मौत के दाम मँहगे हो गए.

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Comment

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Comment by Vindu Babu on February 22, 2014 at 8:36pm

आदरणीया वीणा जी:

आज के सच को बयां करती हुई सटीक रचना की है आपने।

इस अभिव्यक्ति के लिए आपको हार्दिक बधाई।

Comment by vijay nikore on February 22, 2014 at 4:48pm

आपकी यह रचना आज के माहौल में बहुत-कुछ सोचने को विवश करती है। बधाई, आदरणीया वीणा जी।

सादर,

विजय निकोर

Comment by Er. Ambarish Srivastava on August 14, 2012 at 10:12pm

//जो अरमान मचले थे
किन्ही नूरानी आँखों में;
वो मजहब की कातिल दीवारों में
चिन गए.
जिंदगी के ख्वाब और अरमान
जब दफ्न हो गए;
सोचा:
क्या करे जीकर कोई...?
पर
जब हम ढूंढने निकले
तो
मौत के दाम मँहगे हो गए.//

वीणा जी ! उपरवाले ने हम सभी में कोई भी भेदभाव नहीं किया पर धर्म मज़हब या कौम के दायरे में हमें यहीं पर बांटा गया है....इससे जनित त्रासदी का बेहतरीन चित्रण आपने अपनी उपरोक्त रचना में किया है ....साधुवाद !

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