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मन को बांधना आसान नहीं

शब्दों की तरह
चाहता हू बांधना मन को भी
मगर मन ...
कौंधती है बिजली की तरह
बढती है लहरों की तरह
मन बाहर दौड़ने लगता है
ध्यान के दौरान
गंदे विचार कुलबुलाते रहते है ॥


बड़े ही द्वन्द में जीता है मन
आत्मा -परमात्मा के चक्कर में
गृहस्थ -वैराग्य के रास्तों पर
अपने -पराये की दहलीज पर
ठिठक जाता है मन ॥

खोये प्रेमी /खोया धन
पाने के लिए तपड़ता है मन ॥
सोचा था ...
बुढ़ापे के साथ
तन और मन ठंढा हो जाएगा ॥
मगर मन ....
अब भी लम्बी छलांगे लगाता है ॥

क्या मन की चंचलता को रोकना
संयम को पा लेना है ?
ईस्वर के करीब पहुचना है ?

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Comment

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Comment by Shaileshwar Pandey ''Shanti'' on September 25, 2010 at 6:50pm
BhaiJi, sharir buda hone se kya huaa... Dil me kuchh kar jane ki chahat hai to maan hamesh hi jawan rahega...bahut hi sundar rachana hi...Ma Saraswati sdaiv aap ka sath de...
Comment by baban pandey on August 10, 2010 at 1:21pm
गणेश भाई , सतीश भाई एवं मनोज भाई को हार्दिक अभिनन्दन
Comment by satish mapatpuri on August 9, 2010 at 4:49pm
खोये प्रेमी /खोया धन
पाने के लिए तपड़ता है मन ॥
सोचा था ...
बुढ़ापे के साथ
तन और मन ठंढा हो जाएगा ॥
मगर मन ....
अब भी लम्बी छलांगे लगाता है ॥
मन को क्यों ठंढा करना बब्बन जी, बुढापा आये तो आये, उसे हम क्यों महसूस करें, अच्छी रचना है, बधाई.

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on August 9, 2010 at 5:50am
बब्बन भैया अच्छी रचना है, बिलकुल अध्यात्मिक सोच है, सारा खेल तो मन का ही है, मन शांत तो सारा दौलत है आप के पास, और मन अशांत तो सारा दौलत रह कर भी कुछ भी नही,
कुछ टाइपिंग की ग़लतिया परिलक्षित है सुधार करना चाहेंगे .....
हू - हूँ , पाने के लिए तपड़ता है मन, "तड़पता" ,ईस्वर - ईश्वर

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