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धोते -धोते पाप को, थकी गंग की धार ।
कैसे होगा जीव का, इस जग में उद्धार ।
इस जग में उद्धार , धर्म से रिश्ते झूठे ।
मन में भोग-विलास, आचरण दिखें अनूठे ।
कर्मों के परिणाम , देख फिर हरदम रोते ।
करें न मन को शुद्ध , गंग में बस तन धोते ।

सुशील सरना / 10-8-25

मौलिक एवं अप्रकाशित 

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Comment by Sushil Sarna on Wednesday
आदरणीय सौरभ जी आपके ज्ञान प्रकाश से मेरा सृजन समृद्ध हुआ । हार्दिक आभार आदरणीय जी

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on Wednesday

सुझावों को मान देने के लिए हार्दिक धन्यवाद, आदरणीय सुशील सरना जी. 

पहला पद अब सच में बेहतर हो गया है। 

Comment by Sushil Sarna on Tuesday
आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी सृजन के भावों को मान देने तथा अपने अमूल्य सुझाव से मार्गदर्शन के लिए हार्दिक आभार । ऐसे मार्गदर्शन ही सृजन को पुष्ट करते हैं । हार्दिक आभार आदरणीय जी

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on Tuesday

गंगा-स्नान की मूल अवधारणा को सस्वर करती कुण्डलिया छंद में निबद्ध रचना के लिए हार्दिक बधाई, आदरणीय सुशील सरना जी। 

 

इस जग में उद्धार , धर्म से रिश्ते झूठे ।
मन में भोग-विलास, आचरण रखें अनूठे .....  दिखें अनूठे करना भाव को तार्किक रूप से शाब्दिक कर सकेगा 

 
कर्मों के परिणाम , देख फिर हरदम रोते ।
करें न मन को शुद्ध , गंग में बस तन धोते ।  .... . वाह वाह! .. यह अभिव्यक्ति ही रचना के हेतु का कारण है।    

धोते -धोते थक गई, पाप गंग की धार .... .. इस पद के चरण, आदरणीय, तनिक और सहज विन्यास चाहते हैं। चूँकि पद के बीच यति का होना चरणों को स्थापित करता है। अत: शब्दों का प्रयोग यति के अनुसार होना चाहिए। दोहा, रोला जैसे छंदों में तो चरणों का निर्धारण स्थायी है। इन्हीं से कुण्डलिया छंद बनता है। इस पद पर पुन: कार्य किया जाना श्रेयस्कर होगा।

जैसे, 
पाप धोते थक गई, निर्मल  गंगा धार .. या आप इससे भिन्न और संयत पद की रचना कर सकते हैं। 

रचना प्रस्तुति हेतु हार्दिक धन्यवाद और शुभकामनाएँ

शुभ-शुभ 

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