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ग़ज़ल - वो कहे कर के इशारा, सब ग़लत ( गिरिराज भंडारी )

२१२२    २१२२      २१२

गुफ़्तगू चुप्पी इशारा सब ग़लत

बारहा तुमको पुकारा सब ग़लत

 

ये समंदर ठीक है, खारा सही

ताल नदिया वो बहारा सब ग़लत

 

रोज़ डूबे, रोज़ लाया खींच कर

एक दिन क़िस्मत से हारा, सब ग़लत

 

एक क्यारी को लबालब भर दिये

भोगता जो बाग़ सारा, सब ग़लत

 

मान  जायेंगे  ग़लत वो  हैं, अगर

आप जो कह दें दुबारा, सब ग़लत

 

तुम रहे कुछ ठीक, कुछ मैं भी रहा

जो बचा  बाक़ी  हमारा, सब ग़लत

 

एक वो ही ठीक, जो  दिखता नहीं

वो कहे  कर के इशारा, सब ग़लत

************************************ 

मौलिक एवं अप्रकाशित 

 

Views: 70

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on Thursday

आदरणीय रवि भाई ग़ज़ल पर उपस्थित हो  कर  उत्साह वर्धन करने के लिए आपका हार्दिक आभार 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on Thursday

आ. नीलेश भाई , ग़ज़ल पर उपस्थिति  और  सराहना के लिए  आपका आभार 

ये समंदर ठीक है, खारा सही

ताल नदिया वो बहारा सब ग़लत - 
इस शेर में मैंने केवल अनुपयोगी ( खारा समंदर प्यासों के लिए ) की स्वीकार्यता और ताल -नदिया और बहार  उपयोगी होते हुए अस्वीकार्यता , जैसी मानसिकता पर  प्रश्न उठाने का प्रयास किया है 
बहारा के स्थान पर  नीर सारा  किया जा सकता था , 

रोज़ डूबे, रोज़ लाया खींच कर

एक दिन क़िस्मत से हारा, सब ग़लत   --   ये हर किसी के लिए है ,  लगातार्र अच्छा करने के बाद एक गलत परिणाम के कारण सभी अच्छाइयां भुला दी  जातीं है 

एक क्यारी को लबालब भर दिये

भोगता जो बाग़ सारा, सब ग़लत..   --  इसमे भी क्यारी - और  लबालब  के बात समझ में आ जाती है , ऐसा मुझे लगता है 
 फिर भी बेहतर को  मैं  हमेशा स्वीकार करने के लिए तैयार हूँ , अगर आप कुछ सुझाव दें तो स्वागत है |

सादर 



Comment by Ravi Shukla on Thursday

आदरणीय  गिरिराज भाई जी आपकी ग़ज़ल का ये शेर मुझे खास पसंद आया बधाई 

तुम रहे कुछ ठीक, कुछ मैं भी रहा

जो बचा  बाक़ी  हमारा, सब ग़लत

Comment by Nilesh Shevgaonkar on Thursday

आ. गिरिराज जी 

मैं आपकी ग़ज़ल के कई शेर समझ नहीं पा रहा हूँ.
.

ये समंदर ठीक है, खारा सही

ताल नदिया वो बहारा सब ग़लत... यहाँ समंदर, ताल नदी के साथ बसन्त ऋतु (बहारा) का सम्बन्ध मैं नहीं समझ पा रहा.
.

रोज़ डूबे, रोज़ लाया खींच कर

एक दिन क़िस्मत से हारा, सब ग़लत... किस के बारे में बताया जा रहा है, आप ही स्पष्ट करें.
.

एक क्यारी को लबालब भर दिये

भोगता जो बाग़ सारा, सब ग़लत.... क्या भर दिए ..उससे बाग़ कैसे प्रभावित हो रहा है?
.
एक बहुत उम्दा रदीफ़ और बेहतर ढंग से निभाया जा सकता था. इस ज़मीन की ख़ोज करने के लिए बधाई.
सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on May 5, 2025 at 5:00pm

अनुज बृजेश  ग़ज़ल की सराहना  के लिए आपका बहुत शुक्रिया 

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on May 5, 2025 at 12:09pm

वाह-वाह आदरणीय भंडारी जी क्या ही शानदार ग़ज़ल कही है। और रदीफ़ ने तो दीवाना कर दिया।हार्दिक बधाई....


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on May 2, 2025 at 5:31pm

आदरणीय सौरभ भाई , ग़ज़ल पर आपकी उपस्थति और उत्साहवर्धक  प्रतिक्रया  के लिए आपका हार्दिक आभार 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on May 2, 2025 at 4:37pm

आदरणीय गिरिराज भाईजी, आपकी प्रस्तुति का रदीफ जिस उच्च मस्तिष्क की सोच की परिणति है. यह वेदान्त की ’नेति-नेति’ के दर्शन से प्रभावित है. इस नजरिये से गजल के सभी शेर सचेत, गंभीर पाठकों को अद्वितीय मायना बताते दिखेंगे, इसमें शक नहीं. 

इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई, आदरणीय. 

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