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Sheikh Shahzad Usmani's Blog – October 2019 Archive (3)

फ़िर वही राग (क्षणिकायें)

दीये बनते, बिकते, जलते हैं

पेट पालते हैं

दीपक तले अंधेरा

फ़िर वही रात, वही सबेरा!

दीये पालते हैं, दीये पलते हैं

विरासत पलती है

दीपक तले अंधेरा

फ़िर वही बात, वही बखेड़ा!

विरासत पालती है, विरासत पलती है

उद्योग पलते हैं; राजनीति पलती है

लोकतंत्र पलता है

दीपक तले अंधेरा

फ़िर वही धपली, वही राग!

स्वच्छता पालती है, स्वच्छता पलती है

नारे-पोस्टर पलते हैं, भाषण पलते हैं

दीपक तले अंधेरा

फ़िर वही चाल, वही…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on October 25, 2019 at 6:46am — 5 Comments

दीये पलते हैं...! (लघुकथा)

दीपावली के चंद रोज़ पहले से ही त्योहार सा माहौल था उस कच्चे से घर में। सब अपने पालनहार बनाने में जुटे हुए थे; कोई मिट्टी रौंद रहा था, कोई पहिया चला-चला कर उसके केंद्र पर मिट्टी के लौंदों को त्योहार मुताबिक़ सुंदर आकार दे रहा था। वह उन्हें धूप में कतारबद्ध जमाती जा रही थी। लेकिन अपने-अपने काम में तल्लीन और सपनों में खोये अपनों को देख कर उसे अजीब सा सुकून मिल रहा था हर मर्तबा माफ़िक़। एक तरफ़ उसकी सास; दूसरी तरफ़ समय के पहिये संग कुम्हार का पैतृक पहिया चलाता उसका पति दीपक और उसके कंधों पर झूलता…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on October 22, 2019 at 10:40pm — 3 Comments

विकासोन्मुखी (लघुकथा)

"ख़ामोश!" एक बलात्कार पीड़िता और सरेआम उसकी हत्या करने वाले युवकों के बाद बारी-बारी से माइक पर उसने मशहूर नेताओं-अभिनेताओं और पुलिसकर्मियों की मिमिक्री करते हुए कहा, "कितने आदमी थे!"



"साहब, ती..ई...तीन थे!"



"वे तीन थे ... और ये सब तीस-चालीस...ऐं! लानत है... तुम लोगों की ख़ामोशी पर!"

"साला... एक मच्छर इस देश के आदमी को हिजड़ा बना देता है!"



"साहब... मच्छर! .. मच्छर बोले तो... पैसा, डर, पुलिस, नेता, क़ानून या स्वार्थ!..है न!"



"कोई…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on October 8, 2019 at 8:30am — 4 Comments

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"आदरणीय  जी, बढ़िया ग़ज़ल हुई है। शेर दर शेर दाद ओ मुबारकबाद कुबूल कीजिए। गुणिजनों की इस्लाह तो…"
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