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Julie's Blog – October 2010 Archive (5)

"माँ"



(ये मेरी पहली कोशिश है ग़ज़ल लिखनें की... जहाँ गलती हो कृपया करके बे'झिझक बताएं... शुक्रिया...!!)





सख्त रास्तों पर भी आसान सफ़र लगता है...

ये मुझे माँ की दुआओं का असर लगता है...!!



हो जाती है, बोझिल आँखें जब रोते-रोते...

माँ से फ़िर मुश्किल चुराना ये नज़र लगता है...!!



नहीं आती नींद इन मखमली बिस्तरों पर...

माँ की थपकियों का यादों में जब मंज़र लगता… Continue

Added by Julie on October 20, 2010 at 10:30pm — 12 Comments

"कवि"



((( यूँ तो हूँ साधारण-सी इंसान बस... पर आजकल भावनाओं को शब्द देने आ गया है और लोग मुझे 'कवि' (कवयित्री) के नाम से पुकारने लगे हैं... पर अभी इस उपाधि से हमें नवाज़ा जाए ये हम सही नहीं समझते... अभी ऐसे किसी विषय पर लिखा नहीं... मैं अभी "कवि" नहीं...!! ये रचना बस यही सोचते सोचते बन पड़ी के मैं कवि क्यूँ नहीं और कब होउंगी...!! -जूली )))



मैं "कवि" 'नहीं' हूँ... ...… Continue

Added by Julie on October 20, 2010 at 8:30pm — 5 Comments

"मैं और मेरा रावण"



इक अट्टहास... गूंजा...

पल को चौंक... देखा चारो ओर...

पसरा था सन्नाटा... ... ...

वहम समझ, बंद की फिर आँखें...

मगर फिर हुई पहले से भयानक, और ज्यादा रौद्र गूँज...

उठ बैठ... तलाशा हर कोना डर से भरी आँखों ने...

सिवाए मेरे और सन्नाटे के, ना था किसी का वजूद मगर...

तभी सन्नाटे को चीरती इक आवाज नें छेड़ा मेरा नाम...

कौन... ... ...???

बदहवास-सी... इक दबी चीख निकली मेरी भी...

तभी देखा... अपना साया... जुदा हो… Continue

Added by Julie on October 15, 2010 at 10:30pm — 17 Comments

"रंग"



जीवन... जीतें हैं लोग...

वही... जो, जैसा मिल जाता है उन्हें...

पर इस एक जीवन में... है एक और जीवन...

जिसे, अक्सर भूल जातें हैं हम...

वो है 'रंगों' का जीवन...

हर रंग एक जीवन खुद में...

हर जीवन एक रंग खुद में....

हर रंग की अपनी कहानी...

हर कहानी का अपना रंग...

खुशियाँ, उदासियाँ, उल्लास, विश्वास...

जीवन की तरह हर मोड़ है यहाँ...

हर खुशबू है, हर सपना है...



कभी उदासी में साथ… Continue

Added by Julie on October 9, 2010 at 5:00pm — 10 Comments

"तमन्नायें..."



ज़िन्दगी... ... ...

देती रही तमन्नायें...

उन्हें सहेजती रही मैं...

खुद में... ... ...

इस उम्मीद से...

कि कभी... किसी रोज़...

कहीं ना कहीं...

इन्हें भी दूँगी पूर्णता...

और करूँगी...

खुद को भी पूर्ण...

जिऊँगी तृप्त हो...

इस दुनिया से...

बेखबर... ... ...



पर... ... ...

नहीं जानती थी मैं...

कि तमन्नायें होतीं हैं...

सिर्फ सहेजने के लिये...

इन समंदर…
Continue

Added by Julie on October 1, 2010 at 10:05pm — 5 Comments

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