थी कभी दिलनशीं दास्ताॅ ज़िन्दगी
अब तो लगती है कोहे गेराॅ ज़िन्दगी
मुज़महिल मुज़तरिब बेकराॅ ज़िन्दगी
ढॅंूढती है कोई सायबाॅ ज़िन्दगी
गर्दिशे-वक्त ने क्या से क्या कर दिया
बूढ़ी लगने लगी है जवाॅ ज़िन्दगी
मुफ़लिसी घर की खुश्यिाॅ चुरा ले गई
देखती रह गई बेज़बाॅ ज़िन्दगी
ये ज़माना वेरासत कहेगा जिन्हें
छोड़ जायेगी ऐसे निशाॅ ज़िन्दगी
वक्त धोखा न दे पायेगा अब इसे
खूब समझे है …
Added by Bekhud Ghazipuri on November 27, 2011 at 9:07pm — No Comments
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