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Vijay nikore's Blog (210)

थरथरा उठती हैं आस्थाएँ

ठीक है अभी तक अनवरत

तुम मन ही मन मानो निरंतर

देवी के दिव्य-स्वरूप सदृश

अनुदिन मेरी आराधना करते रहे

और अभी भी भोर से निशा तक

देखते हो परिकल्पित रंगों में मुझको

फूलों की खिलखिलाती हँसी में…

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Added by vijay nikore on June 24, 2019 at 3:28pm — 4 Comments

सूर्यास्त के बाद

निर्जन समुद्र तट

रहस्यमय सागर सपाट अपार

उछल-उछलकर मानो कोई भेद खोलती

बार-बार टूट-टूट पड़ती लहरें ...

प्यार के कितने किनारे तोड़ 

तुम भी तो ऐसे ही स्नेह-सागर में

मुझमें छलक-छलक जाना चाहती थी

कोमल सपने से जगकर आता

हाय, प्यार का वह अजीब अनुभव !

डूबते सूरज की आख़री लकीर

विद्रोही-सी, निर्दोष समय को बहकाती

लिए अपनी उदास कहानी

स्वयँ डूब जा रही है ...

आँसू भरी हँसी लिए ओठों पर

जैसे…

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Added by vijay nikore on June 17, 2019 at 8:30pm — 4 Comments

जा रहे हम दूर-दूर

ढलते पहर में लम्बाती परछाईयाँ

स्नेह की धूप-तपी राहों से लौट आती

मिलन के आँसुओं से मुखरित

बेचैन असामान्य स्मृतियाँ

ढलता सूरज भी तब

रुक जाता है पल भर

बींध-बींध जाती है ऐसे में सीने में

तुम्हारी  दुख-भरी भर्राई आवाज़

कहती थी ...

"इस अंतिम उदास

असाध्य संध्या को

तुम स्वीकारो, मेरे प्यार"

पर मुझसे यह हो न सका

अधटूटे ग़मगीन सपने से जगा

मैं पुरानी सूनी पटरी पर…

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Added by vijay nikore on June 1, 2019 at 12:00am — 4 Comments

बाद ए सबा

बाद ए सबा

 

पूछा जो किसी ने बावरी बाद ए सबा से

उफ़्ताँ व खेज़ाँ है तू ए बावली हवा

टकराई है तू बारहा बेरहम दीवारों से

खटखटाए हैं कितने बंद दरवाज़े भी तूने

आज बता तो ज़रा तेरी मंज़िल कहाँ है…

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Added by vijay nikore on January 9, 2019 at 1:05pm — 4 Comments

माँ शारदा का वरदान है प्यार

माँ शारदा का वरदान  है प्यार

[ श्री रामकृष्ण अस्पताल सेवाश्रम, कंखल (उत्तरखंड, भारत) से ]

ऐसी ही ...  प्रिय

लेटी रहो न मेरे घुटने पर सर टेके

भावनायों के निर्जन समुद्र तट पर आज

बहें हैं आँसू बहुत मध्य-रात्रि के अंधेरे में

कभी अनेपक्षित बह्ते कभी रुक्ते-रुकते

पहले इससे कि तुम्हारा  एक और आँसू

मेरे अस्तित्व पर टपक कर मुझको

नि:स्तब्ध,…

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Added by vijay nikore on November 25, 2018 at 7:16pm — 8 Comments

प्रणय-हत्या

प्रणय-हत्या

किसी मूल्यवान "अनन्त" रिश्ते का अन्त

विस्तरित होती एक और नई श्यामल वेदना का

दहकता हुया आशंकाहत आरम्भ

है तुम्हारे लिए शायद घूम-घुमाकर कुछ और "बातें"

या है किसी व्यवसायिक हानि और लाभ का समीकरण

सुनती थी क्षण-भंगुर है मीठे समीर की हर मीठी झकोर

पर "अनन्त" भी धूल के बवन्डर-सा भंगुर है

क्या करूँ ... मेरे साँवले हुए प्यार ने यह कभी सोचा न…

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Added by vijay nikore on November 9, 2018 at 6:30am — 6 Comments

अंतर्द्वन्द्व

अंतर्द्वन्द्व

 

कितने बर्फ़ीले दर्द दिल में  छिपाए

किन-किन  बहानों  से  मन  को  बहलाए

भीतर  की गहरी गुफ़ा से  आकर

तुम्हारे सम्मुख आते ही हर बार

हँस देता हूँ ,  हँसता चला जाता हूँ

स्वयं को  छल-छल  ऐसे

तुमको  भी... छलता चला जाता हूँ 

 

ऐसे  में  मेरी हर हँसी में  तुम  भी

हँस देती हो ... नादान-सी

मेरे उस मुखौटे से अनभिज्ञ

न जानती  हो, न जानना चाह्ती  हो

कि अपने सुनसान अकेलों…

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Added by vijay nikore on November 6, 2018 at 2:00pm — 14 Comments

दर्द के दायरे

“दर्द के दायरे”  यह ख़याल मुझको  एक  दिन नदी के किनारे पर बैठे “ जाती लहरों ” को देखते आया । कितनी मासूम होती हैं वह जाती लहरें, नहीं जानती कि अभी कुछ पल में उनका अंत होने को है । जिस पल कोई एक लहर नदी में विलीन होने को होती है, ठीक उसी पल एक नई लहर जन्म ले लेती है .... दर्द की तरह । दर्द कभी समाप्त नहीं होता, आते-जाते उभर आती है दर्द की एक और लहर, और अंतर की रेत पर मानो कुछ लिख जाती है । मेरी एक कविता से कुछ शब्द ...

 

उफ़्फ़ ! कल तो किसी की चित्ता पर…

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Added by vijay nikore on October 28, 2018 at 7:00am — 13 Comments

चिन्ह

                    चिन्ह

 

                       

       कोई अविगत "चिन्ह"

       मुझसे  अविरल  बंधा

       मेरे अस्तित्व का रेखांकन करता

       परछाईं-सा

       अबाधित, साथ चला आता है

                     

       स्वयं  विसंगतिओं   से  भरपूर

       मेरी अपूर्णता का आभास कराता

       वह अनन्त, अपरिमित

       विशाल घने मेघ-सा, अनिर्णीत

       मंडराता है स्वछंद…

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Added by vijay nikore on September 29, 2018 at 4:47pm — 11 Comments

सो न सका मैं कल सारी रात

सो न सका मैं कल सारी रात

कुछ रिश्ते कैसे अनजाने

फफक-फफक, रात अँधेरे

प्रात की पहली किरण से पहले ही

सियाह  सिफ़र  हो  जाते  हैं

अनगिनत बिखराव और हलचल…

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Added by vijay nikore on September 23, 2018 at 7:11am — 17 Comments

आशंका के गहरे-गहरे तल में

आशंका के गहरे-गहरे तल में

आयु के हज़ारों लाखों पलों के दबे ढेर में

नए कुछ पुराने दर्दों की कानों में आहट

भार वह भीतर का जो खलता था तुमको

मुझको भी

एक दूसरे को दुखी न देखने की

दर्द और न देने की मूक अभिलाषा

रोकती रही थी तुमको... कुछ कहने से

मुझको भी

पर परस्पर दर्द और न देने की इस चाह ने

बना दी है अब बीच हमारे कोई खाई गहरी

काल ने मानो सुनसान रात की गर्दन दबोच             …

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Added by vijay nikore on September 21, 2018 at 11:16pm — 19 Comments

प्रिय भाई डा० रामदरश मिश्र जी

आज १५ अगस्त... कई दिनों से प्रतीक्षा रही इस दिन की ... डा० रामदरश मिश्र जी का जन्म दिवस जो है । आज उनसे बात हुई तो उनकी आवाज़ में वही मिठास जो गत ५६ वर्ष से कानों में गूँजती रही है। उनका सदैव स्नेह से पूछना , “भारत कब आ रहे हैं ? ” ... सच, यह मुझको भारत आने के लिए और उतावला कर देता है  .. और मन में यह भी आता है कि आऊँगा तो प्रिय सरस्वती भाभी जी के हाथ का बना आम का अचार भी खाऊँगा ... बहुत ही अच्छा अचार बनाती हैं वह ।

कैसे कह दूँ उनके स्नेह से मुझको स्नेह नहीं है, जब उनकी मीठी…

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Added by vijay nikore on August 19, 2018 at 6:19am — 4 Comments

खुदापरस्ती

खुदापरस्ती   ... (अतुकांत)

मुअम्मे कुछ ऐसे जो हम जीते रहे

पर ज़िन्दगी भर हमसे बयां न हुए

 

कैसी है तिलिस्मी मुसर्रत की तलाश

मशगूल रखती रही है शब-ओ-रोज़

हसरतें भी देती हैं छलावा…

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Added by vijay nikore on August 13, 2018 at 9:08pm — 8 Comments

छ्टपटाह्ट

छटपटाहट

समझ नहीं पाता हूँ 

उदासी से भरी गुमसुम निस्तब्धता

अनदीखे  अन्धेरे  में  वेदना  का 

चारों ओर सूक्षम समतल प्रवाह

पास हो तुम, पर पास होकर भी

इतनी  अलग-सी, व …

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Added by vijay nikore on August 5, 2018 at 8:00pm — 14 Comments

घाव समय के

अस्तित्व की शाखाओं पर बैठे

अनगिन घाव

जो वास्तव में भरे नहीं

समय को बहकाते रहे

पपड़ी के पीछे थे हरे

आए-गए रिसते रहे 



कोई बात, कोई गीत, कोई मीत

या…

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Added by vijay nikore on July 14, 2018 at 5:36pm — 22 Comments

काल कोठरी

काल कोठरी

निस्तब्धता

अँधेरे का फैलाव

दिशा से दिशा तक काला आकाश

रात भी है मानो ठोस अँधेरे की

एक बहुत बड़ी कोठरी

सोचता हूँ तुम भी कहीं …

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Added by vijay nikore on June 24, 2018 at 1:22am — 37 Comments

परदेशी-बाबू

थाहों में टटोलती कुछ, कहती थी 

जाकर वहाँ फूलों की सुगन्ध में

नकली-कागज़ी मुस्कानों की उमंग में

क्या याद भी करोगे मुझको

बताओ  न 

स्मरण में सहज दोड़ती आऊँगी क्या ?

या, जाते ही वहाँ बन जाओगे वहाँ के

पराय-से अजीब अस्पष्ट परदेशी-बाबू तुम

नई मुख-आकृतियों के बीच देखोगे भी क्या

मुढ़कर, मद्धम हो रही इस पुरानी पहचान को

या सरका दोगे इसे स्मृतिपटल से

तुम मात्र मिथ्या कहला कर इसे

माना कि टूटा है हमारा वह…

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Added by vijay nikore on June 18, 2018 at 9:00pm — 8 Comments

ताहिर तामीर

रोशनी का कोई  सुराख़ न सही

बेरुखी ही प्यार का अंदाज़ सही

कोई गिला नहीं कोई शिकवा नहीं

यह माना कि जिगर में तुम्हारे

कोई तीखी  ख़राश है आज

तल्खी  है, कसक  है  बहुत

है  कशमकश  भी  बेशुमार

इस  पर  भी  परीशां  न  हो

खालीपन  को  तुम

बहरहाल  खाली  न  समझो

आएँगे लम्हें जब कलम से तुम्हारी                        

अश्कों  के  मोती  गिर-गिर  कर

किसी गज़ल के अश’आर बनेंगे

तब  तरन्नुम  से  पढ़ना  उनको

लाज़िमी है…

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Added by vijay nikore on June 12, 2018 at 1:30am — 20 Comments

अकुलायी थाहें

अकुलायी थाहें

कटी-पिटी काली-स्याह आधी रात

पिघल रहा है मोमबती से मोम

काँपती लौ-सा अकुलाता

कमरे में कैद प्रकाश

आँखों में चिन्ता की छाया

ऐसे में समाए हैं मुझमें

हमारे कितने सूर्योदय

कितने ही सूर्यास्त

और उनमें मेरे प्रति

आत्मीयता की उष्मा में

आँसुओं से डबडबाई तेरी आँखें

तैर-तैर आती है रुँधे हुए विवरों में

तेरी-मेरी-अपनी वह आख़री शाम

पास होते हुए भी मुख पर…

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Added by vijay nikore on June 10, 2018 at 12:13pm — 18 Comments

मरज़ जुदाई का (अतुकांत)

जुदाई है महरुमी-ए-मरज़ क्या, जुदाई कहे क्या

हो ज़िन्दगी में खुशी का मौसम या मातम इन्तिहा

कर देती है दिल को बेहाल हर हाल में यह

रातें मेरी हैं बार-ए-गुनाह अब जुदाई में तेरी

किस्सा: है  कुश्त-ए-ग़म, यह तसव्वुर है कैसा

कहीं आकर पास  दबे पाँव न लौट जाओ तुम

नींद तो क्या यह रातें अंगड़ाई तक हैं लेती नहीं

अंजाम के दिन बुला कर आख़िर में पूछेगा जो

आलम अफ़्रोज़ खुदा उसूलन पास बुला कर मुझे

यूँ मायूस हो क्यूँ? मलाल है? आरिज़: है…

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Added by vijay nikore on May 28, 2018 at 1:30pm — 10 Comments

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