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Sushil Sarna's Blog (851)

बाज़ुओं में ....

बाज़ुओं में ....

कौन रोक पाया है

समय वेग को

अपने गतिशील चक्र के नीचे

हर पल को रौंदता

चला जाता है

और लिख जाता है

धरा के ललाट पर

न मिटने वाली

दर्द की दास्तान

शायद

तुमने मेरे चेहरे की लकीरों को

गौर से नहीं देखा

तुमने सिर्फ

मुहब्बत के हर्फ़ पढ़े हैं

उन हर्फों को

बेहिजाब होते नहीं देखा

किर्चियों से चुभते हैं

जब ये हर्फ़

समय के अश्वों की

टापों के नीचे

बे-आवाज़ फ़ना हो जाते…

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Added by Sushil Sarna on June 9, 2017 at 3:52pm — 4 Comments

स्पंदन....

1,स्पंदन......(२ मुक्तक)  :

व्यर्थ व्यथा है हार जीत की
निशा न जाने पीर  प्रीत की
नैन बंध सब शुष्क  हो  गए
आहटहीन हुई राह मीत की
.... ..... ..... ..... ..... ..... ..... ....

2.

गंधहीन हुए चन्दन  सब
स्वरहीन हुए क्रंदन  सब
स्मृति उर से रिसती रही
मौन हो गए स्पंदन  सब

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on June 9, 2017 at 12:54pm — 6 Comments

श्वासों का क्षरण ...

श्वासों का क्षरण ...

मैं

बहुत रोयी थी

अपने एकांत में

तेरे बाद भी

कई रातों तक

तेरे अंक में सोयी थी

तेरा जाना

एक घटना थी शायद

दुनियां के लिए

मगर

असंभव था

तुझे विस्मृत करना

मैं तेरे गर्भ के अंक की

पहचान थी

और तू

मेरे स्मृति अंक की श्वास

सच

कोई भी नहीं देख पाया

मेरे रुदन को

तूने कैसे देख लिया

शुष्क पलकों में

तू मुझसे कल

मिलने आयी थी

अपने अंक में

तूने मुझे सुलाया…

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Added by Sushil Sarna on June 7, 2017 at 4:14pm — 6 Comments

खूंटी पर टंगी कमीज़ को ....

खूंटी पर टंगी कमीज़ को ....

जब जब

मैं छूती हूँ

खूंटी पर

टंगी कमीज़ को

मेरा समूचा अस्तित्व

रेंगने लगता है

उस स्पर्शबंध के आवरण में

जहां मेरा शैशव

निश्चिंत सोया करता था

अब

जब आप नहीं रहे

मैं इस कमीज़ में

आपको महसूस करती हूँ

सामना करती हूँ

हर उस दूषित दृष्टि का

जो मेरे शरीर पर

अपनी कुत्सित भावनाओं की

खरोंचें डालती है

मेरी दृष्टिहीनता को

मेरी कमजोरी मानती है

न, न

आप…

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Added by Sushil Sarna on June 5, 2017 at 4:11pm — 7 Comments

तृषित ज़िंदगी ...

तृषित ज़िंदगी ...

गाँव की
उदास और चुप शाम

टूटे छप्पर
हवाओं से
बिखरे तिनके
बयाँ कर रहे थे
ज़ुल्म आँधियों का

बिखरे 

रोटियों के टुकड़े
और
टूटे हुए मटके में
दो हाथों के इंतज़ार में
ठहरा
तृप्ति को तरसता
अतृप्त पानी
कह रहा था
चली गयी
शायद
कोई  ज़िंदगी

तृषित ही 

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on May 31, 2017 at 2:00pm — 8 Comments

वो घर मेरा नहीं ...

वो घर मेरा नहीं ...



कितना कठिन है

अपने घर का पता जानना



लौट जाते हैं

हर बार

आकर भी

घर के पास से हम

किस से पूछें  पता 

सभी मुसाफिर लगते हैं

अपने घरों से

अंजाने लगते हैं

जानते हैं

ये घर

हमारा नहीं

फिर भी

उसको घर मानते हैं



टूट जाते हैं

जो पत्ते शज़र से

फिर वो शज़र

उनका घर नहीं रह जाता

हो जाते हैं

वो हवाओं के हवाले

घर के पास होते हुए भी…

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Added by Sushil Sarna on May 30, 2017 at 6:00pm — 9 Comments

विश्वास ...

विश्वास ....

क्या है विश्वास

क्या वो आभास

जिसे हम

केवल महसूस कर सकते हैं

और गुजार देते हैं ज़िंदगी

सिर्फ़ इस यकीन पर कि

एक दिन तो

उसे हम स्पर्श कर लेंगे

छू लेंगे एक छलांग में

आसमान को

या

वो है विश्वास

जिसे हम जानते हुई भी

कि वो

चाहे कितना भी

हमारी साँसों के करीब क्यूँ न हो

छोड़ देगा

हमारा साथ

निकल जाएगा चुपके से

हमारे क़दमों के नीचे से

जैसे

ज़मीन होने का…

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Added by Sushil Sarna on May 22, 2017 at 8:30pm — 2 Comments

अँधेरे ...

अँधेरे ...

किसने

स्वर दे दिए

रजनी तुम्हें

तुम तो

वाणीहीन थी

मूक तम को

किसने स्वरदान दे दिया

शून्यता को बींधते हुए

कुछ स्वर तो हैं

मगर

अस्पष्ट से

क्षण

तम के परिधान में

सुप्त से प्रतीत होते हैं

भाव

एकांत के दास हैं

शायद

तुम

इस तम की

वाणीहीनता का कारण हो

पर हाँ

ये भी सच है कि

तुम ही इस का

निवारण भी हो

दे दो प्राण

इन एकांत

अँधेरे को

छू लो इन्हें…

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Added by Sushil Sarna on May 17, 2017 at 5:18pm — 6 Comments

स्वप्न साधना ....

स्वप्न साधना ....



निस्सीम प्रीत के

मधुपलों में

हो समर्पित

चिर सुख की

मिलन वेला में

खो गयी मैं

और हार के

स्वयं को स्वयं से

अमर जीत

हो गयी मैं



करती रही

क्षण क्षण संचित

एकांत वास में

अपने प्रिय के

प्रीतपाश का



विस्मृत कर

विभावरी के

अंतकाल को

श्वास स्पंदन

की मिलन गंध को

विभावरी के

शेष पलों में

जीती रही मैं



शून्य हुआ

तुम बिन हर पल

श्वास मेरी… Continue

Added by Sushil Sarna on May 15, 2017 at 7:23pm — 9 Comments

स्मृति पृष्ठ ...

स्मृति पृष्ठ ...

रजनी के

श्यामल कपोलों पर

मेघों की बूंदों ने

व्यथित यादों के

पृष्ठों पर जैसे

सान्तवना का

आभासीय श्रृंगार कर डाला

दृग कलशों से

सजल वेदना

प्रीत की

पराकाष्ठा को

चेहरे की लकीरों में

शोभित करती रही

प्राण और देह में

जीवन संघर्ष चलता रहा

किसी को विस्मरण करने के

सभी उपचार

रेत की भित्ति से

ढह गए

थके नयन

आशा क्षणों की

गहन कंदराओं में…

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Added by Sushil Sarna on May 9, 2017 at 3:59pm — 13 Comments

बोझ ...(250 वीं रचना )

बोझ ...

हम

कहाँ जान पाते हैं

चेतन या अवचेतन में

अटकी हुई कुंठाओं की

मूक भाषा को

उनींदी सी अवस्था में

कुछ सिमटी हुई

आशाओं को

मन में उबलते

एक असीमित बोझ की

पहचान को

साँसों की थकान

अश्रु की व्यथा

और

रुदन के आह्वान को

तुम्हारे

स्पर्श की अनुभूति में लिप्त

क्षणों की

परिणिती के आभास ने

यूँ तो

अंजाने संताप से

मुक्ति का ढाढस दिया

किन्तु…

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Added by Sushil Sarna on May 4, 2017 at 4:59pm — 12 Comments

गर्व ....

गर्व ....

रोक सको तो

रोक लो

अपने हाथों से

बहते लहू को

मुझे तुम

कोमल पौधा समझ

जड़ से उखाड़

फेंक देना चाहते थे

मेरे जिस्म के

काँटों में उलझ

तुमने स्वयं ही

अपने हाथ

लहू से रंग डाले

बदलते समय को

तुम नहीं पहचान पाए

शर्म आती है

तुम्हारे पुरुषत्व पर

वो अबला तो

कब की सबला

बन चुकी ही

जिसे कल का पुरुष

अपनी दासी

भोग्या का नाम देता था

देखो

तुम्हारे…

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Added by Sushil Sarna on April 28, 2017 at 5:00pm — 6 Comments

यकीं के बाम पे ...



यकीं के बाम पे ...

हो जाता है

सब कुछ फ़ना

जब जिस्म

ख़ाक नशीं

हो जाता है

गलत है

मेरे नदीम

न मैं वहम हूँ

न तुम वहम हो

बावज़ूद

ज़िस्मानी हस्ती के

खाकनशीं होने पर भी

वज़ूद रूह का

क़ायनात के

ज़र्रे ज़र्रे में

ज़िंदा रहता है

ज़िंदगी तो

उन्स का नाम है

बे-जिस्म होने के बाद भी

रूहों में

इश्क का अलाव

फ़िज़ाओं की धड़कनों में

ज़िंदा रहता है

लम्हे मुहब्बत…

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Added by Sushil Sarna on April 28, 2017 at 2:05pm — 7 Comments

क़ैद रहा ...

क़ैद रहा ...

वादा
अल्फ़ाज़ की क़बा में
क़ैद रहा

किरदार
लम्हों की क़बा में
क़ैद रहा

प्यार
नज़र की क़बा में
क़ैद रहा

इश्क
धड़कनों की क़बा में
क़ैद रहा

कश्ती
ढूंढती रही
किनारों को
तूफ़ां
शब् की क़बा में
क़ैद रहा

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on April 25, 2017 at 5:00pm — 11 Comments

बेशर्मी से ... (क्षणिका )...

बेशर्मी से ... (क्षणिका )

अन्धकार
चीख उठा
स्पर्शों के चरम
गंधहीन हो गए
जब
पवन की थपकी से
इक दिया
बुझते बुझते
बेशर्मी से
जल उठा

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on April 22, 2017 at 8:49pm — 11 Comments

कलियों का रुदन ....

कलियों का रुदन   .... 

रात भर

कलियों का रुदन होता रहा

उनके अश्रु

ओस कणों में

परिवर्तित हो गए

पर तुम

उनके अंतर्मन की वेदना से

अनभिज्ञ रहे भानु

उनकी सिसकियाँ

सन्नाटों में

तुम्हें पुकारती रहीं

मगर तुम न सुन सके

आहों के वेग से

तुम

अनभिज्ञ रहे भानु

सच तुम

बहुत निष्ठुर हो

भला

तुम्हारे रश्मि दूत भी कहीं

उनके मूक बंधन के

कारण का निवारण बन

सकते…

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Added by Sushil Sarna on April 20, 2017 at 5:39pm — 2 Comments

बस चला जा रहा हूँ...

बस चला जा रहा हूँ ...

मैं

समय के हाथ पर

चलता हुआ

गहन और निस्पंद एकांत में

तुम्हारे संकेत को

हृदय की

गहन कंदराओं में

अपने अंतर् के

चक्षुओं में समेटे

बस चला जा रहा हूँ

मैं

समय के हाथ पर

मधुरतम क्षणों का आभास

स्वयं का

अबोले संकेत में

विलय का विशवास

अपने अंतर् के

चक्षुओं में समेटे

बस चला जा रहा हूँ

मैं

समय के हाथ पर

वाह्य जगत के

कल ,आज और कल के

भेद…

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Added by Sushil Sarna on April 15, 2017 at 7:16pm — 12 Comments

अभिलाषाओं के ...

अभिलाषाओं के   ... 

थक जाते हैं

कदम

ग्रीष्म ऋतु की ऊषणता से

मगर

तप्ती राहें

कहाँ थकती हैं



अभिलाषाओं की तृषा

पल पल

हर पल

ग्रीष्म की ऊषणता को

धत्ता देती

अपने पूर्ण वेग से

बढ़ती रहती है

ज़िंदगी

सिर्फ़ छाँव की

अमानत नहीं

उस पर

धूप का भी अधिकार है

जाने क्यूँ

धूप का यथार्थ

जीव को स्वीकार्य नहीं



भ्रम की छाया में

यथार्थ के निवाले

भूल जाता है…

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Added by Sushil Sarna on April 14, 2017 at 3:44pm — 4 Comments

लम्हों की कैद में .....

लम्हों की कैद में ......



लम्हे

जो शिलाओं पे गुजारे

पाषाण हो गए



स्पर्श

कम्पित देह के

विरह-निशा के

प्राण हो गए



शशांक

अवसन्न सा

मूक दर्शक बना

झील की सतह पर बैठ

काल की निष्ठुरता

देखता रहा



वो

देखता रहा

शिलाओं पर झरे हुए

स्वप्न पराग कणों को



वो

देखता रहा

संयोग वियोग की घाटियों में

विलीन होती

पगडंडियों को

जिनपर

मधुपलों की सुधियाँ

अबोली श्वासों…

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Added by Sushil Sarna on April 12, 2017 at 6:00pm — 6 Comments

मैं चुप रही.....

मैं चुप रही ....

रात के पिछले पहर

पलकों की शाखाओं पर

कुछ कोपलें

ख़्वाबों की उग आई थीं

याद है तुम्हें

तुम ने

चुपके से

मेरे ख्वाबों की

कुछ कोपलें

चुराई थीं

मैं चुप रही

तुमने

अपने स्पर्श से

उनमें बैचैनी का

सैलाब भर दिया

मैं चुप रही

तुमने

मेरी पलकों की

शाखाओं पर

अपने अधरों से

सुप्त तृष्णा को

जागृत किया

मैं चुप रही

रात की उम्र

ढलती रही…

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Added by Sushil Sarna on April 5, 2017 at 5:50pm — 14 Comments

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